वेदों का माहात्म्य
वेदों के काव्यत्व का वर्णन स्वयं वेद करते हैं –
अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥अथर्ववेदः १०।८।३२॥
अर्थात् समीप होते हुए जीवात्मा परमात्मा को छोड़ता नहीं । तथापि समीप होते हुए भी, वह परमात्मा को देखता तक नहीं । हे जीव ! तू परमात्म-देव के काव्य को देख – न मरता है और न वृद्ध होता है ।
चर्चा: इस मन्त्र का उत्तरार्ध आर्य समाजों मे लोकप्रिय है, जहां इसका अर्थ इस प्रकार किया जाता है – वेद परमात्मा के काव्य हैं । सूष्टि के आदि से लेकर अन्त तक, वे न तो मरते हैं, न पुराने = अप्रासंगिक होते हैं । वे सदा विद्यमान और नए = प्रासंगिक बने रहते हैं । इससे वेदों की अपौरुषेयता भी स्थापित होती है । यह एक अर्थ अवश्य ही सम्भव और ग्रहीतव्य है, तथापि यह पूर्वार्ध से सम्बन्ध नहीं रखता । इस दोष का परिहार प्रो० विश्वनाथ विद्यालंकार की व्याख्या में प्राप्त होता है, जिसको हम नीचे सम्पूर्णता से देखते हैं ।
जीवात्मा परमात्मा के सदा सन्निकट रहता है, कोई ऐसा क्षण नहीं होता जिसमें वह परमात्मा को छोड़ सके । ऐसा होते हुए भी, यह बड़ी अचम्भे की बात है कि जीव उसको किसी भी प्रकार से अनुभव करने में असमर्थ होता है । इसके लिए परमेश्वर ही उपदेश देते हैं कि वेदों को पढ़ो ! उनमें दिए उपायों से तुम मुझे पा लोगे । तत्पश्चात् तुम न तो मरोगे और न ही जरावस्था, रोग, आदि, से ग्रस्त होगे । इस मन्त्र की देवता ‘अध्यात्म’ है, सो इस मन्त्र को जीवात्मा ओर परमात्मा में घटाना युक्तियुक्त भी है । यहां वेदों के धर्मग्रन्थ होने का, और उनके अनुकरण से मनुष्य के परम लक्ष्य, मोक्ष, की प्राप्ति का उपदेश अतिसरलता से बताया गया है ।