ऋग्वेद में चिकित्सा
अद्भुत बैल विषयक ऋग्वेद का मन्त्र देखने के उपरान्त, हम इसी वेद का एक और विचित्र मन्त्र देखते हैं । यह इतना प्रसिद्ध तो नहीं है, न ही इसकी स्वामीदयानन्दकृत व्याख्या प्राप्त होती है । तथापि यह भी अनेक अर्थों को गर्भ में संजोए है, ऐसा प्रतीत होता है । इनमें से कुछ अर्थ जो मुझे प्राप्त हुए, उनका इस लेख में उल्लेख कर रही हूं, विशेषकर चिकित्सा-सम्बन्धी ।
यह मन्त्र ऋग्वेद में इस प्रकार पाया जाता है –
सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका ।
उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु ॥ ऋक्०१०।१०६।६॥
इस मन्त्र के पूरे सूक्त के ऋषि ‘काश्यपः भूतांशः’ और देवता ‘अश्विनौ’ हैं । इस कारण से यहां मुख्य विचारणीय विषय दो अश्वियों के जोड़े का है । पुराणों में इन दोनों को देवताओं के भिषक् के रूप में वर्णित किया गया है, परन्तु वेदों में ये अनेक युगलों के अर्थ में आते हैं । वह जोड़ा जो अलग न किया जा सके, ऐसे जोड़े को ‘अश्विनौ’ संज्ञा से वर्णित किया जाता है । इसलिए यह पद सर्वदा द्विवचन में ही प्राप्त होता है । ऋग्वेद के १।२२वें सूक्त के प्रथम चार मन्त्रों आदि स्थलों पर स्वामी दयानन्द ने इस युग्म के अनेक अर्थ दर्शाए हैं, जैसे द्यौ-पृथिवी, अग्नि-जल, अग्नि-सोम, उपदेष्टा-उपदेश्य, अध्यापक-शिष्य, रथ बनाने व चलाने वाला, पति-पत्नी, आदि, आदि । इन सभी अर्थों में हम देख सकते हैं कि जोड़े के एक भाग का अस्तित्व दूसरे भाग के बिना नहीं हो सकता । परन्तु किसी पदार्थ के द्वित्व के रूप में भी अर्थ प्राप्त होता है । इसी सरणी में दो वैद्यों का भी अर्थ मिलता है । पुराणों में इनको जुड़वा भाई बताया गया है । अश्वी द्युस्थानीय देवों में परिगणित हैं । इसलिए ये कान्तिमान हैं । ‘अशूङ् व्याप्तौ सङ्घाते च’ धातु से निष्पन्न होने से, इनका व्यापकत्व भी अभिप्रेत है ।
प्रथम दृष्टि में ही मन्त्र की रचना अद्भुत लगती है । उसके पद असम्भव और निरर्थक से प्रतीत होते हैं ! इसीलिए इसको पूर्वमीमांसा के सूत्र “सतः परमविज्ञानम् (१।२।४९)” अर्थात् “(उपरिनिर्दिष्ट कारणों से) अन्य प्रकार से प्रतीत होने वाली वैदिक मन्त्रों की अर्थहीनता अज्ञान के कारण होती है” के अन्तर्गत व्याख्याकारों ने पढ़ा है । यह इसीलिए कि यह मन्त्र प्रथमदृष्ट्या अर्थहीन-सा लगता है – जर्भरी, तुर्फरी जैसे शब्द संस्कृत के शब्द ही नहीं प्रतीत होते !
वस्तुतः, यह मन्त्र यमकालंकार का श्रेष्ठ उदाहरण है जैसा कि मैंने अपने पूर्व लेख ‘वेदों में अलंकार’ में दर्शाया था । अपितु इस सूक्त के सभी मन्त्रों का यह वैशिष्ट्य है – विचित्र यमकाकार पद !
जहां तक अर्थ का प्रश्न है, यास्क ने निरुक्त में एक अर्थ दर्शाए हैं, जिनकी विस्तार से व्याख्या श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार पालीरत्न जी ने अपने निरुक्त-भाष्य में एक प्रकार से घटाई है और स्वामी ब्रह्ममुनि ने अपने ऋग्वेद-भाष्य में कुछ भेद के साथ । उदयवीर जी ने उपरोक्त पूर्वमीमांसा के सूत्र की व्याख्या में एक अन्य ही अर्थ दर्शाया है जो कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चिन्तित है ।
पहले हम निरुक्तवचन देख लेते हैं ।
यास्कीय निरुक्त व्याख्या
निरुक्त में इस ऋग्वैदिक मन्त्र की व्याख्या इस प्रकार है – अथैषाश्विनोः – (सृण्येवेत्यादिः मन्त्रः) । सृण्येवेति द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च । तथा अश्विनौ चापि भर्तारौ – जर्भरी भर्तारावित्यर्थः, तुर्फरीतू हन्तारौ । नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका – नितोशस्यापत्यं नैतोशं, नैतोशेव । तुर्फरी क्षिप्रहन्तारौ । उदन्यजेव जेमना मदेरू – उदन्यजेवेत्युदकजे इव रत्ने सामुद्रे चान्द्रमसे वा । जेमने जयमने, जेमना मदेरू । ता मे जराय्वजरं मरायु, एतज्जरायुजं शरीरं शरदमजीर्णम् ॥निरुक्तम् अ०१३, ख०५॥ अर्थात् अश्वी-विषयक यह मन्त्र है । इसमें सृणि = दराती दो प्रकार की होती है – भर्ता और हन्ता । अश्विन् भी इन्हीं दो प्रकार के होते हैं, जिन्हें ‘जर्भरी’ पद से भर्ता कहा गया है, और ‘तुर्फरीतू’ पद से हन्ता । ‘नैतोश’ ‘नितोश = मारने वाला’ का अपत्य है । ‘तुर्फरी’ शीघ्र मारने वाला है । ‘उदन्यजा इव’ का अर्थ है जल में उत्पन्न होने वाले दो रत्नों के समान जिनमें से एक समुद्रीय है और दूसरा चन्द्रमा से सम्बन्धित । ‘जेमने’ का अर्थ वे दो जो जयशील हों । इस प्रकार के दो अश्विनि मेरे इस जरायु से उत्पन्न, मरणशील शरीर को बूढ़ा न होने दें । इस प्रकार हम पाते हैं कि यास्क की व्याख्या बहुत स्पष्टता से यह नहीं बताती है कि ये दो अश्विन् आखिर हैं क्या । इसीलिए विभिन्न व्याख्याकारों ने अपनी-अपनी मति के अनुसार इस मन्त्र के अर्थ किए हैं । इनमें से पहले देखते हैं –
निरुक्त में श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार पालीरत्न जी की व्याख्या
स्वामी दयानन्द के दूसरे मन्त्रों से कुछ अर्थ ग्रहण करके, पालीरत्न जी की व्याख्या कुछ इस प्रकार है – हे द्यावापृथिवी के अश्वी (एकवचन) स्वामी जगदीश्वर ! जैसे दरांती एक ओर कृषि में पौधों की छटाई करके उनको स्वस्थ व वृद्धिशील बनाती है, वहीं दूसरी ओर व्यर्थ पौधों को काटकर नष्ट कर देती है, वैसे ही तू भर्ता भी है और हन्ता भी । तू, शत्रुहन्ता राजपुत्र के समान, दुष्टों को शीघ्र नष्ट करने वाला और उनको (पर्फरीका) फाड़ने वाला है । तू सामुद्र (मोती) अथवा चान्द्रमस (ज्योत्स्ना) रत्न के समान मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचने वाला तथा प्रसन्नताप्रद है । उक्त प्रकार का तू मेरे शरीर को वृद्धावस्थारहित बना दे ।
इस अर्थ में दरांती में गुणों के द्वित्व का तो बोध होता है, परन्तु अन्यत्र एकत्व ही समझ में आता है । इसलिए मन्त्र के अन्य पदों का द्विवचन सार्थक नहीं होता । जबकि दरांति उपमा से शरीर की वृद्धि व शल्यक्रिया से रोगनिवारण के अर्थ प्रतीत होते हैं, परन्तु रत्नों और जयशील होने का सामञ्जस्य वृद्धावस्था को दूर करने से नहीं बैठता । इसलिए यह व्याख्या मुझे कुछ न्यून प्रतीत होती है ।
ऋग्वेदभाष्य में स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक विद्यामार्तण्ड जी की व्याख्या
स्वामी ब्रह्ममुनि जी ने वैद्यों का अर्थ ग्रहण करते हुए इस प्रकार व्याख्या की है – हे अश्वियों ! तुम दात्री के समान शरीर के स्वास्थ्यवर्धक गुणों को बढ़ाओ और स्वास्थ्यनाशक दोषों का हनन करो । अत्यन्त दूर प्रहार करने वाले अस्त्र के समान औषधि द्वारा शीघ्र हनन करने वाले, और शल्य क्रिया द्वारा फाड़ने वाले हो । जल में उत्पन्न दो रत्न जैसे जयशील और हर्षप्रद होते हैं, वैसे ही तुम दोनों – औषधि देने वाला वैद्य और शल्य चिकित्सक – रोग पर विजय प्राप्त करने वाले और सुख देने वाले हो । तुम दोनों मेरे इस जरायु से उत्पन्न, मरणशील शरीर को जरारहित कर दो ।
इस व्याख्या में दो अश्वियों का बहुत सुन्दर समन्वय है और उपमाएं भी पर्याप्त स्पष्ट हो जाती हैं (रत्न कैसे जयशील होता है, इसे छोड़कर) । जरारहित होने से रोगनिवारण और स्वास्थ्यवर्धन का सामञ्जस्य भी बैठता है । इसलिए यह भाष्य अधिक ग्राह्य है, मेरी मति में ।
पूर्वमीमांसा के उदयवीरजी के भाष्य में उपलब्ध अर्थ
अब देखते हैं पण्डित उदयवीर शास्त्री जी की व्याख्या । उनका मानना है कि ऋषि ‘भूतांश’ का भी यहां अर्थ करना चाहिए (युधिष्ठर मीमांसक जी के समान, उदयवीर जी भी मन्त्र के ऋषि की सार्थकता को मानते थे ), और उससे विद्युत् के धनात्मक व ऋणात्मक (positive and negative) अंशों का बोध कराया गया है । सृणि को उन्होंने दात्री न लेकर, हाथी पर प्रयोग होने वाला अंकुश लिया है, जो कि वा०शि०आप्टे के मतानुसार भी है । ‘सृ गतौ’ धातु से निष्पन्न होने के कारण, यह अर्थ उपयुक्त भी प्रतीत होता है, विशेषकर ‘दात्री’ की तुलना में । अंकुश द्वारा हाथी को नियन्त्रित भी किया जाता है और आगे भी प्रेरित किया जाता है । इससे उन्होंने विद्युत् के ‘पकड़ने व धकेलने’, जो कि सम्भवतः आकर्षण व प्रतिकर्षण के समानार्थक हैं, का ग्रहण किया है । ‘सृणि’ से उन्होंने विद्युत् की तीव्र गति व तीक्ष्णता का भी ग्रहण माना है ।
‘जर्भरी’ को उन्होंने ‘भृञ् भरणे/डुभृञ् धारणपोषणयोः’ से ही न लेकर, ‘जृभि गात्रविनामे’ से भी निष्पन्न माना है, जिसका अर्थ उन्होंने ‘अंगों का मरोड़ना’ न लेकर ‘अंगों का अदृश्यप्राय होना’ लिया है । स्पष्टतः विद्युत् दृष्टिगोचर नहीं होती । भृ धातु से विद्युत् द्वारा परमाणुओं का धारण, अथवा विद्युत् के सदुपयोग से पोषण का ग्रहण किया है ।
‘तृफ हिंसायाम्’ से निष्पन्न ‘तुर्फरीतु’ प्राप्त होने से, विद्युत् के हिंसात्मक स्वरूप का ग्रहण होता है, जिससे वह प्राणी को मार भी देती है । इसी वध करने के अर्थ में ‘नैतोशा’ भी आया है । वस्तुतः, धातुपाठ में ‘तृफ हिंसायाम्’ न होकर ‘तृफ तृप्तौ’ दिया गया है । यह अर्थ भी देते हुए, उन्होंने विद्युत् के प्रयोगों से जनित विभिन्न प्रकार के सुख का ग्रहण किया है ।
‘ञिफला विशरणे’ से निष्पन्न ‘पर्फरीका’ शब्द फाड़ने या छिन्न-भिन्न करने के अर्थ में है । सो, विद्युत् (electrolysis आदि द्वारा) पदार्थों को छिन्न-भिन्न करने में भी समर्थ होती है, इसलिए उसको इस पद से कहा गया है । यह पद ‘पृ पालनपूरणयोः/पूरणे’ से भी बनाया जा सकता है, जब उसका समृद्धि प्रदान करने वाला भृञ् धातु के समान पूर्व अर्थ ही होगा ।
‘उदन्यजा’ के विषय में उन्होंने बताया कि ‘उदन्य = उदक’ + ‘जनी प्रादुर्भावे’ अर्थात् जल से उत्पन्न । इसका अर्थ उन्होंने पनबिजली (hydroelectricity) लिया है जो कि प्रभूत समृद्धि उत्पन्न करने के कारण रत्न के समान है ।
‘जेमना = जयशीलौ’ से उन्होंने विद्युत् के सदा सब पदार्थों पर हावी होने का गुण दर्शाया है ।
‘मदेरू’ से उन्होंने विद्युत् के अत्यधिक शक्तिशाली होने के कारण जैसे विद्युत् में शक्ति का मद होना बताया है, अथवा विद्युत् से उत्पन्न सुख को द्योतित किया है ।
‘अश्विनौ’ को चिकित्सक के रूप में उन्होंने बताया है । सो, हम आज सब रुग्णालयों में विद्युत् के उपकरणों के रूप में देख ही सकते हैं, अपितु बिजली से सीधी-सीधी भी फिज़ियोथैरेपी की जाती है । उसका प्रयोग जानकार ही कर सकता है, इस अर्थ में उदयवीर जी ने ‘अश्विनौ’ को ‘देवों = विद्वानों’ का चिकित्सक ग्रहण किया है ।
यह व्याख्या चिन्तनयोग्य है । ‘भूतांशः’ के अर्थ का प्रयोग यहां अतिसुन्दर है । विद्युत् के व्यापकत्व व संघात द्वारा परमाणु आदि का ग्रहण हो जाने से, ‘अश्विन्’ देवता पद भी सार्थक हो जाता है । समृद्धि-विषयक कुछ पुनरुक्ति प्रतीत होती है, परन्तु यह बहुत बड़ा दोष नहीं है । पनबिजली की उपमा दो रत्नों से क्यों दी गई है, यह स्पष्ट नहीं है । कुल मिला के, उदयवीर जी की व्याख्या नूतन है और मननयोग्य है ।
‘सृण्येव जर्भरी’ मन्त्र अपनी विचित्र यमकात्मक रचना के कारण रम्य है । साथ ही, इसके गर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण अर्थ समाए हुए हैं, यह व्याख्याकारों के मतों से स्पष्ट हो जाता है । अश्विन् युगल वाले मन्त्रों में चिकित्सा सम्बन्धी जानकारी निहित है, यह भी ज्ञात होता है । इन मन्त्रों पर अधिक शोध की आवश्यकता है जिससे कि चिकित्सा के नए प्रकार उजागर हो सकें । ऐसे मन्त्रों को निरर्थक मानना तो महामूर्खता है !