परमात्मा और जीव का सख्यभाव
वेदों ने परमात्मा और जीव को सखा या मित्र घोषित किया है । परन्तु इन दोनों में तो स्वामी-सेवक सम्बन्ध होना चाहिए ? वेदों ने भी अनेकत्र परमात्मा को नाथ, स्वामी, आदि, पुकारा है । तब क्या यहां मित्रता का सम्बन्ध कहना उपयुक्त है? जानते हैं इस लेख में …
प्रायः सभी इस प्रसिद्ध वेदमन्त्र से परिचित होंगे जहां यह सखित्व स्पष्ट रूप से कहा गया है –
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समाने वृक्षे परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलस्वाद्वत्त्य-
नश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥ ऋग्वेदः १।१६४।२०, अथर्ववेदः ९।९।२० ॥
अर्थात् दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, जो कि जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे के सखा है, एक वृक्ष पर लिपटे बैठे हैं । उनमें से एक तो उस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, जब कि दूसरा बिना कुछ खाए उसको देखता रहता है । इस रूपक अलंकार से जीवात्मा व परमात्मा का सम्बन्ध बहुत ही हृदयग्राही प्रकार से दर्शाया गया है । जहां दोनों में इतनी समानताएं हैं, वहां वे एक-दूसरे से बहुत भिन्न भी हैं, जिस प्रकार दो मित्र होते हैं ! सखा का अर्थ ही होता है – समानं ख्यानं यस्य – जिसका वर्णन दूसरे व्यक्ति के समान हो । मित्र वही हो सकते हैं जिनमें कुछ समानताएं हों; और, सम्बन्ध के रुचिपूर्ण होने के लिए, उनमें भेद भी आवश्यक है । यही तो जीवात्मा और परमात्मा के बीच में पाया जाता है !
मन्त्र ‘सुपर्ण’ से दोनों की चेतनता को इंगित करता है, जो कि वृक्षरूपी प्रकृति में नहीं पाई जाती । इस चेतनता से इच्छा आदि का भी प्रत्यारोपण होता है । यह भौतिक इच्छा न होकर, सात्त्विक इच्छा है, जैसे ईश्वर की संसार की रचना करने की इच्छा, अथवा जीव की परमात्मा को प्रत्यक्ष करने की इच्छा । ऐसे ही कुछ गुण इन दोनों को समान ख्यान वाले सखा बना देते हैं । दोनों एक-दूसरे के अगल-बगल बैठे होने पर भी, उनमें से एक ही दूसरे को देख रहा होता है – दूसरे को इसके लिए बहुत प्रयत्न करके स्वादिष्ट फलों का आस्वादन छोड़ना पड़ता है !
यह सख्यभाव कैसा है, इसको अथर्ववेद के एक सूक्त में विशेष निरूपित किया गया है, जहां अथर्वा अर्थात् निरुद्धचित्त योगी और वरुण अर्थात् वरणीय प्रभु का वार्तालाप है (इसीलिए इस सूक्त का ऋषि अथर्वा है और देवता वरुण हैं) । यहां अथर्वा पहले विनती करता है –
आ ते स्तोत्राण्युद्यतानि यन्त्वन्तर्विश्वासु मानुषीषु दिक्षु ।
देहि नु मे यन्मे अदत्तो असि युज्यो मे सप्तपदः सखा ॥ अथर्ववेदः ५।११।९॥
अर्थात् हे वरुण ! सारी मानवीय दिशाओं में तेरी स्तुतियां उदय होकर फैल गई हैं (अर्थात् मेरे मन में सर्वत्र अब तेरी ही स्तुतियां हैं – मैं अब कुछ और सोचता ही नहीं हूं) । (इसलिए) अब तू मुझे वह दे जो तूने अभी तक मुझे दिया नहीं है (अर्थात् तेरा साक्षात्कार), (क्योंकि) तू मेरा सात पदों वाला जुड़ा हुआ सखा है ।
योगी यहां परमात्मा को कहता है कि मैंने तो सब प्रकार से तेरा वरण कर लिया है, परन्तु तूने अभी तक मुझे अपना रूप भी नहीं दिखाया है । कब तू अपने को प्रकट करेगा? जल्दी आ ! सात पदों अर्थात् जन्मजन्मान्तर से हम दोनों जुड़े हुए हैं, फिर भी मैंने तुझे कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा है । अब तो पर्दे के पीछे से सामने आ जा !
उसी विनती को आगे बढ़ाते हुए अगला मन्त्र कहता है –
समा नौ बन्धुर्वरुण समा जा वेदाहं तद्यन्नावेषा समा जा ।
ददामि तद्यत् ते अदत्तो अस्मि युज्यस्ते सप्तपदः सखास्मि ॥ अथर्ववेदः ५।११।१०॥
यहां पहले पाद में अथर्वा का वचन है और शेष तीन पादों में वरुण का उत्तर है । अथर्वा कहता है – हे वरुण ! हम दोनों की बन्धुता समान है और हमारी उत्पत्ति भी समान है (तो फिर तू मेरा गाढ़ा मित्र ही हुआ) । अथर्वा की इस गुहार से द्रवित होकर, वरुण कहता है – मैं जानता हूं कि यह हमारी उत्पत्ति एक-समान है । (इसलिए) मैं तुझे वह देता हूं जो अब तक मैंने नहीं दिया । (निश्चय से,) तू मेरा सप्तपद सखा है ।
अवश्य ही, न तो परमात्मा की उत्पत्ति होती है, न ही जीवात्मा की, इसलिए यहां जिस उत्पत्ति की चर्चा की गई है, वह भौतिक शरीर में दोनों का जुड़ना है, दोनों का ‘बन्धुत्व = बन्धना’ है । जहां एक ओर जीवात्मा अपनी अणुता के कारण शरीर के एक कोने में बैठा होता है, वहीं परमात्मा सर्वव्यापी होते हुए भी उसी कोने में, उसकी बुद्धि में, उसको प्राप्त होता है । इस प्रकार से दोनों की यह उत्पत्ति यहां समान कही गई है । जीव याद दिलाता है कि जबकि आप मेरे साथ ‘उत्पन्न’ तो हो गए थे, और आपके आदेशानुसार मैंने तप कर-करके चित्त में से सब भौतिक लालसाओं को हटाकर, आपका ही प्रेम भर दिया है, तथापि आपने आज तक मुझे दर्शन नही दिए हैं । कृपया अब तो सामने आइए ! परमात्मा भी जीवात्मा को अपना साथी स्वीकारते हुए, उसपर द्रवित होकर, उसे दर्शन दे देते हैं ।
इस प्रकार, इस अथर्ववेद के ५।११ सूक्त में हम भक्त योगी का प्रभु के साथ वार्तालाप का बहुत मार्मिक वर्णन पाते हैं, और दोनों के सखित्व के सही अर्थ को समझ पाते हैं ।
इस सख्यभाव को मनुष्य कैसे जान पाता है, इस विषय पर वेदमन्त्र कहता है –
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि ॥ऋग्वेदः १०।७१।२॥
अर्थात् जहां ज्ञानीजन, छलनी से सत्तू को शोधने के समान, मन से वाणी को शोधते हुए बोलते हैं, वहां ये समान ख्यान वाले जन सख्यभाव को जान लेते हैं । इन ऋषियों की वाणी में कल्याणकारिणी लक्ष्मी निहित होती है ।
मुख्य रूप से तो यहां सख्यभाव वाणी से बताया गया है, अर्थात् वैदिक शब्दों के अर्थों का साक्षात्कार करना, परन्तु वस्तुतः वेदवाणी में जो ‘लक्ष्मी’ निहित है, वह प्रभु के साथ सख्यभाव ही है, जो प्रभु उसके बताए ज्ञान, उसके बताए मार्ग से ही प्राप्त होता है । परमात्मा तो सभी आत्माओं से प्रेम करता है, आत्माएं ही उसको नहीं जान पातीं । उसको जानने के लिए वेदवाणी से भी सख्यभाव करना, उसके तात्पर्य का यथार्थरूप में समझना एकमात्र मार्ग है ।
भावविभोर होकर भक्त रो पड़ता है –
देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो
वसुर्वसूनामसि चारुरध्वरे ।
शर्मन्त्स्याम तव सप्रथस्तमे-
ऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥ऋग्वेदः १।९४।१३॥
अर्थात् हे पवित्र करने वाले अग्ने ! तुम देवों के देव हो । (मेरे और सभी जीवात्माओं के) अद्भुत मित्र हो । तुम वसुओं के वसु हो । तुम श्रेष्ठ हो । तुम्हारे बताए विस्तृत अहिंसापूर्ण श्रेष्ठ मार्ग पर (चलते हुए) हम सुखी हों । तुम्हारे सख्य में हम कभी हिंसित न हों ।
इस मन्त्र में अनेक बातें भक्त के लिए कह दी गई हैं । इन्द्रियों आदि देवों का वह देव अग्नि पवित्रकारक है । इसलिए जब हम उस देव में मन लगाते हुए, इन्द्रियों के भोग्य विषयों से ऊपर उठते हैं, तब हम पवित्र हो जाते हैं । जबकि वह विरक्ति का मार्ग कठिन है, तथापि वह वसु शरीर में वास कराने वाले तत्त्वों में से श्रेष्ठतम है । इसलिए उसका आश्रय लेकर, इस सुविस्तृत मार्ग पर जाने का साहस कर सकते हैं । मार्ग भी सुविस्तृत है – ऐसा नहीं है कि हम शीघ्र अपने गन्तव्य पर पहुंच जाएंगे । जैसा कठोपनिषद् का प्रसिद्ध वाक्य है – दुर्गमपथस्तत् कवयो वदन्ति – ज्ञानी जन हमें बताते हैं कि वह पथ दुर्गम है । तथापि हिंसा न करते हुए जब हम उसपर जाएं, तो प्रभु से प्रार्थना है कि हम सुखी रहें – कष्ट तो बहुत आएंगे, परन्तु उन्हें, अपने में समत्व बनाए हुए, झेल जाएं । प्रत्युत तुम्हारी मित्रता में जैसे-जैसे अपने को तुम्हारे निकट पाएं, तो हमारे सारे ही कष्ट छूट जाएं । आपके सान्निध्य से, आपके मैत्रीभाव के ज्ञान से मेरा आत्मा भर जाए और मेरे शारीरिक कष्ट या तो मैं भूल जाऊं, या वे मुझे भूल जाएं !
क्योंकि योग का मार्ग अकेले ही पूरा करना पड़ता है, इसलिए मनुष्य उसपर पग धरने में भी डरता है । स्वामी दयानन्द के जीवन-वृतान्त में ही हम देखते हैं कैसे उन्हें चोर-लुटेरों, व्यभिचारियों, हिंस्र पशुओं, आदि, का सामना करना पड़ा । अन्त में, हिंस्र मनुष्यों ने ही उनके प्राण भी हर लिए ! यह सब जानते हुए, कौन इस मार्ग से न कतराएगा ? तब वेद, उपनिषद्, आदि, ही हमारा हाथ पकड़ते हैं और हमें साहस के साथ आगे बढ़ने का मार्ग बताते हैं, जैसा कि प्रथम बताए मन्त्र से अगले मन्त्र में वेद कहता है –
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागम्-
अनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति ।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः
स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥ऋग्वेदः १।१६४।२१॥
अर्थात् जिस ज्ञानमय परमेश्वर में जीवरूपी सुन्दर पक्षों वाले ज्ञानवान् पक्षी, मोक्ष के भाग को (उसकी प्राप्ति को) निरन्तर बताते हैं, उस विश्व के स्वामी और रक्षक को वह (उनमें से कोई) ध्यानवान् योगी मुझ योग से ‘पके हुए’ पात्र में अपना ज्ञान उड़ेल दे – मोक्ष के मार्ग की प्राप्ति के उपायों को कहे ।
पतञ्जलि मुनि कहते हैं –
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥योगदर्शनम् १।२६॥
वह ईश्वर तो पुरातन गुरुओं का भी गुरु है, काल से नष्ट न होने के कारण । जैसे वह जन्मजन्मान्तर से हमारा मित्र है, वैसे ही गुरु भी है । वही हमको इस दुःखमय भवसागर के ही नहीं, अपितु कण्टक भरे योगमार्ग के भी पार ले जाएगा । उस एक की ही शरण अर्थपूर्ण हैं ! उसके अदृष्ट होते हुए भी, उसे गुरु कैसे बनाएं, इसपर वेद कहता है –
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे ।
इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥ऋग्वेदः १।२२।१९, यजुर्वेदः ६।४ व १३।३३, सामवेदः १६७१, अथर्ववेदः ७।२६।६॥
अर्थात् हे जीवों ! तुम सर्वव्यापक परमेश्वर के कर्मों को देखो = जानो, जिससे कि अपने व्रतों = कर्तव्यों का सही ग्रहण कर सको, क्योंकि तुम उस ऐश्वर्यवान् इन्द्र के योग्य अथवा जुड़े हुए सखा हो । यहां निहितार्थ है कि वेदवाणी, जो भी परमात्मा की एक कृति है, को जानकर जीवात्मा को अपने कर्मों को निर्धारित करना चाहिए, जिससे अन्ततः वह उस जुड़े हुए सखा को भी देख ले ! इस निहितार्थ को अगला मन्त्र प्रदर्शित करता है –
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततम् ॥ऋग्वेदः १।२२।२०, यजुर्वेदः ६।५, सामवेदः १६७२, अथर्ववेदः ७।२६।७॥
अर्थात् उस पूर्वमन्त्रोक्त विष्णु के परम पद को निरुद्ध योगी सदा देखते रहते हैं – सदैव परमात्मा में स्थित होकर उसके आदेशों का पालन करते हैं, उसकी उपासना करते हैं – जिस प्रकार दिन के प्रकाश में चक्षु देखता है, देखने में समर्थ होता है । वह मोक्षपद उन्हीं को प्राप्त हो सकता है जो प्रभु को गुरु मानकर, उसके वचन वेद को हृदयंगम करके, उसके अनुसार व्रतों का ग्रहण करते-करते अन्तिम पड़ाव, परम पद मोक्ष, तक पहुंच जाते हैं ।
परमात्मा हमारे परम मित्र हैं । हम भी उसके योग्य और उससे जुड़े हुए सखा हैं, परन्तु संसार के बन्धन में उसे भूल जाते हैं । जो हम उसको ढूढ़ने में अपना सर्वस्व लगा दें, तो जो हमें प्राप्त होगा, वह अतुल्य और अपरिमित होगा । हमें अपने में सख्यभाव जगाने की देर है !