वेदमन्त्रों में विभिन्न ऋषियों के अर्थ

‘ऋग्वेद में चिकित्सा’ शीर्षक वाले लेख में ‘सृण्येव जर्भरी… (ऋक्०१०।१०६।६)’ की व्याख्या में मैंने दर्शाया था कि, उदयवीर जी की व्याख्यानुसार, कैसे मन्त्र पर पढ़ा ऋषि पद उसके अर्थ पर प्रभाव डालता है । ऋषि पद का वेदमन्त्रों के अर्थीकरण पर यह प्रभाव मैंने अनेक बार सिद्ध करने का प्रयास किया है । जब ऋषिपद इतने महत्त्वपूर्ण हैं, तो उनको समझना उतना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है । इस लेख में हम कुछ ऐसे मन्त्र-ऋषियों के अर्थ जानेंगे जिससे उनसे सम्बद्ध मन्त्रों के अर्थ समझने में हम त्रुटि न करें ।

हम जानते हैं कि वेद स्वयं अपने पदों के अर्थ कहीं-कहीं स्पष्ट करते हैं । स्वामी दयानन्द ने दर्शाया था कि कैसे वेदमन्त्र स्वयं कुछ विशिष्ट पदों के अर्थ अन्य मन्त्रों में प्रस्तुत करते हैं, जैसे “इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निराहुरथो… (ऋ० १।१६४।४६)” से इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, आदि, परमात्मा-वाची बताए गए हैं । इस संकेत से, अन्य मन्त्रों में प्रयुक्त होने पर, प्रसंगानुसार, हमें वे पद परमात्मार्थक समझने चाहिए (सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास) । इसी कणी में मैंने ऋषिवाची पदों के अर्थ भी कुछ वेदमन्त्रों में पाए । आश्चर्य की बात यह है कि उन स्थलों पर ‘ऋषिः’ पद उनसे जुड़ा हुआ है ! ये मन्त्र हैं यजुर्वेद के तेरहवें अध्याय के । इस अध्याय के इन मन्त्रों में, और कुछ अन्य मन्त्रों में भी, छन्द की संज्ञाएं भी हमें प्राप्त होती हैं, जिनका उल्लेख मैंने अपने एक छन्द-विषयक लेख में पूर्व किया था ।[1] यह भी एक रोचक बात है कि छन्द और ऋषि – वेदमन्त्रों से जुड़े दो अंशों – की व्याख्या वेद ने समान मन्त्रों में की है !

वसिष्ठ ऋषि

इस शृंखला में पहला मन्त्र है – “… वसिष्ठ ऋषिः । प्रजापतिगृहीतया त्वया प्राणं गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥यजुर्वेदः १३।५४॥”, जिसके भाष्य में महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखते हैं – (वसिष्ठः) अतिशयेन वासयिता (ऋषिः) प्रापको विद्वान् – अर्थात् वसिष्ठ अतिशय वास कराने वाला विद्वान् है । वेदमन्त्र के सन्दर्भ में देखें तो ‘विद्वान्’ को त्याग, ‘मन्त्र’ का ग्रहण करना पड़ेगा । सो, जिन मन्त्रों में जीवन को सुखपूर्ण, दीर्घादि बनाने की चर्चा हो, वहां हम इस पद को ऋषि रूप में पाने की आशा करेंगे ।

आगे मन्त्र ‘प्राण’ अर्थ को ऋषि से जोड़ता है (मन्त्र का देवता भी प्राण ही है) । शतपथ ब्राह्मण में इस मन्त्र की व्याख्या में प्राप्त होता है – वसिष्ठऽऋषिरिति । प्राणो वै वसिष्ठऽऋषिर्यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठोऽथो यद्वस्तृतमो वसति तेनोऽएव वसिष्ठः ॥शतपथ०८।१।१।६॥ – अर्थात् प्राण ही वसिष्ठ ऋषि है, या फिर श्रेष्ठ होने से वसिष्ठ, या फिर अतिशय वास करने या कराने हेतु से वसिष्ठ । अतिशय वास करने के लिए प्रथम प्राणों के संरक्षण की आवश्यकता है, इसलिए प्राणों के लिए ‘वसिष्ठ’ पद का प्रयोग किया गया है ।

यहां पहले तो जिनका यह मत है कि ‘ऋषि’ एकार्थक पद है जो कि केवल मन्त्रद्रष्टाओं के लिए प्रयोग होता है, उनको यह अज्ञान दूर करना चाहिए । दूसरे, ‘वसिष्ठ’ पद ‘वस निवासे, आच्छादने वा, वसु स्तम्भे अथवा’ धातुओं से बना है । क्योंकि शरीर आत्मा का आच्छादन करता है, इसलिए वसिष्ठ से पुनः ‘जीवन’ अर्थ अभिप्रेत है । क्योंकि आत्मा शरीर में स्तम्भित होता है, ठहरता है, इसलिए पुनः वही ‘जीवन’ अर्थ बनता है । ‘वस् + तृच् + अतिशायन इष्ठन्’ प्रकार से निष्पन्न होने से किसी भी श्रेष्ठ गुण में वसने वाले को भी वसिष्ठ कहते हैं । इसलिए महर्षि ने और शतपथ आदि ब्राह्मणों में अनेक गुणों के विवरण प्राप्त होते हैं – अतिशयेन विद्यासु कृतवासः, अतिशयेन धनाढ्यः, आदि आदि । इन सबसे यह समझना चाहिए की वसिष्ठ ऋषि वाले मन्त्र प्राणविषयक अथवा प्राणों का संरक्षण विषयक अथवा जीवन को दीर्घ बनाने वाले अथवा जीवन को सुखी बनाने वाले गुणों को बताने वाले होंगे ।

भरद्वाज ऋषि

दूसरा मन्त्र इस प्रकार है – “… भरद्वाज ऋषिः । प्रजापतिगृहीतया त्वया मनो गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥यजुर्वेदः १३।५५॥”, जहां व्याख्या है – (भरद्वाजः) वाजोऽन्नं विज्ञानं वा बिभर्ति येन श्रोत्रेण तत् (ऋषिः) विज्ञापक: – अर्थात् वह कान जो अन्न वा विज्ञान की पुष्टि को प्राप्त कराने वाले शब्दज्ञान का निमित्त हो । जबकि आंखों से हमें अन्यों से व्यावहारिक ज्ञान (प्रत्यक्ष प्रमाण) उनके व्यवहार के द्वारा प्राप्त होता है, विज्ञान हमें अन्यों से मुख्य रूप से शब्दों से प्राप्त होता है (शब्द प्रमाण) । इसलिए कान को भरद्वाज कहा गया है । परन्तु मन्त्र के प्रसंग में, भरद्वाज द्वारा हमें ऐसे मन्त्र मिलने चाहिए जहां सुख-समृद्धि के लिए विशेष ज्ञान प्रस्तुत किया गया हो ।

मन्त्र में इस पद को मन से भी जोड़ा गया है । शतपथ ब्राह्मण में इस मन्त्र की व्याख्या इस प्रकार है – भरद्वाजऽऋषिरिति । मनो वै भरद्वाजऽऋषिरन्नं वाजो यो वै मनो बिभर्ति सोऽन्नं वाजं भरति । तस्मान्मनो भरद्वाजऽऋषिः ॥शतपथ०८।१।१।९॥ – अर्थात् भरद्वाज ऋषि का अर्थ वाज = अन्न जो भरता है, अर्थात् मन है । ज्ञानी व्यक्ति कम ही भूखा जाता है ! अपने ज्ञान से वह ऐसे आविष्कार कर लेता है, जिससे उसका घर धन-धान्य से भरा-पूरा रहता है । पुनः, इस वचन में कार्यकारण का विपर्यय मानें तो – वस्तुतः, मन के कार्य करते रहने के लिए अन्न आवश्यक है । इसलिए जो अन्न से भरा हुआ है, उसमें मानसिक शक्ति भी अधिक होनी चाहिए; जो भूखा होगा, उसकी बुद्धि भी कार्य करना बन्द कर देगी । इसलिए विद्वान् के रूप में भरद्वाज का अर्थ मनस्वी हुआ, और मन्त्रों के प्रसंग में भरद्वाज ऋषि वाले मन्त्रों में मन, बुद्धि, चिन्तन, मनन, आदि, विषय प्राप्त होने चाहिए ।

यास्कीय निरुक्त में बताया गया है – भरणाद्भारद्वाजः ॥निरुक्तम् ३।१७॥ – “भरद्वाज एव भारद्वाजः” से अर्थ हुआ – जो भरे, वह भरद्वाज । ‘वाज = अन्न (निघण्टु २।७) वा बल (निघण्टु २।९) + भृञ् भरणे वा डुभृञ् धारणपुषणयोः’ से यह शब्द निष्पन्न हुआ है । इसकी एक सुन्दर व्युत्पत्ति स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेद के १।५९।७वें मन्त्र की व्याख्या में दी है – (भरद्वाजेषु) ये भरन्ति ते भरतः । वज्यन्ते ज्ञायन्ते यैस्ते वाजा, भरतश्च ते वाजाश्च तेषु पृथिव्यादिषु – अर्थात् जो ज्ञानादि गुणों को अपने में भरते हैं, वे ‘भरत’ कहलाते हैं; जो दूसरों को वे ज्ञान देते हैं, वे ‘वाज’ कहलाते हैं, और जो दोनों ज्ञान को ग्रहण करते हैं और दान करते हैं, वे ‘भरद्वाज’ कहलाते हैं । कितने सुन्दर अर्थ हुए ! तब क्यों मन को यह संज्ञा मिलती है, वह भी स्पष्ट हो जाता है – मन इन्द्रियों से ज्ञान ग्रहण करता है और ग्रहीत ज्ञान को बुद्धि को उपलब्ध भी कराता है । मन्त्र के प्रसंग में तो केवल ज्ञान देने का ही अर्थ सम्भव होने से, वह ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, ज्ञान लेने का अर्थ नहीं । इस प्रकार पुनः उपर्युक्त मन आदि विषय हमें वहां मिलने चाहिए ।

जमदग्नि ऋषि

तीसरा मन्त्र इस प्रकार है – “… जमदग्निर्ऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया चक्षुर्गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥यजुर्वेदः १३।५६॥”, जहां व्याख्या है – (जमदग्निः) प्रज्वलिताग्निर्नयनम् (ऋषिः) रूपप्रापकः – अर्थात् जमदग्नि प्रकाशस्वरूप और रूप को प्राप्त कराने हारा नेत्र अथवा प्रज्वलित अग्नि है । ‘जमत् = ज्वलित (निघण्टु १।१७) + अग्नि’ से यह शब्दरूप निष्पन्न हुआ है, जिससे अर्थ बना ‘प्रज्वलित अग्नि’ । यहां ध्यान देने योग्य है कि महर्षि ने मन्त्रस्थित ‘चक्षुः’ का स्पष्ट रूप से ऋषिपदवाच्य ‘जमदग्नि’ से सम्बन्ध जोड़ा है । इससे उपर्युक्त मन्त्रों में भी यह सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है । शतपथ ब्राह्मण में तो सर्वत्र यह सम्बन्ध प्रदर्शित है, जैसा कि ऊपर भी दिखा दिया गया है ।

इस मन्त्र की व्याख्या में शतपथ कहता है – जमदग्निर्ऋषिरिति । चक्षुर्वै जमदग्निर्ऋषिर्यदेनेन जगत् पश्यत्यथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्निर्ऋषिः ॥शतपथ०८।१।२।३॥ – अर्थात् चक्षु जमदग्नि ऋषि है क्योंकि इससे (मनुष्य) जगत् देखता है और फिर उसके ऊपर विचार करता है । विद्वान् या मननशील व्यक्ति जगत् के क्रियाकलापों को देखकर, विभिन्न पदार्थों में अनुमान प्रमाण से सम्बन्ध जोड़ पाता है । यह मनन उसका ‘दूसरा चक्षु’ होता है ! इससे उसकी बुद्धि ज्ञानप्रकाश से प्रज्वलित हो जाती है । इस प्रकार, विशेष ज्ञान ‘देखने’ वाला विद्वान् जमदग्नि कहाएगा; अथवा ऐसे ज्ञान को देने वाले मन्त्र का ऋषि जमदग्नि होगा । अन्यत्र शतपथ कहता है – प्रजापतिर्वै जमदग्निः ॥शतपथ० १३।२।२।१४॥ – अर्थात् जमदग्नि का एक अर्थ प्रजापति भी है । ईश्वर तो सम्पूर्ण ज्ञान से सदा ही प्रज्वलित हैं, सो यह विशेषण उनके लिए उपयुक्त ही है ।

सो जमदग्नि ऋषि वाले मन्त्रों में हमें चक्षु, रूप, प्रकाश, अग्नि, आदि, विशेष विषय और प्रजापति विषय प्राप्त होने चाहिए ।

विश्वकर्मा ऋषि

चतुर्थ मन्त्र कहता है – “… विश्वकर्म ऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया वाचं गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥यजुर्वेदः १३।५७॥” जहां व्याख्या है – (विश्वकर्मा) विश्वानि कर्माणि यस्य सः (ऋषिः) वेदार्थवेत्ता – अर्थात्, मन्त्र के प्रसंग में, जो मन्त्र कर्मप्रधान हों, वहां हमें विश्वकर्मा ऋषि प्राप्त होने चाहिए । मन्त्र में वाणी से भी सम्बन्ध है, इसलिए विज्ञान विषय भी प्राप्त होगा । महर्षि ने भी क्रियाओं का वर्णन करने वाली वाणी अर्थ अनेकत्र किए हैं, यथा – विश्वानि सर्वाणि कर्माणि यस्या यस्य वा, सा वाक् विद्वान् वा (यजुर्वेदः ५।११), विश्वं सम्पूर्णं क्रियाकाण्डं सिध्यति यया सा वाक् (यजुर्वेदः १।५) । उपर्युक्त से ‘विश्वकर्मा’ की व्युत्पत्ति भी स्पष्ट हो जाती है ।

शतपथ इस मन्त्र की व्याख्या में कहता है – “अयं दक्षिणा विश्वकर्मेत्ययं वै वायुर्विश्वकर्मा योऽयं पवतऽएष हीदँ सर्वं करोति । तद्यत् तमाह दक्षिणेति तस्मादेष दक्षिणैव भूयिष्ठं वाति । मनो ह वायुर्भूत्वा दक्षिणतस्तस्थौ । तदेव तद्रूपमुपदधाति ॥ तस्य मनो वैश्वकर्मणमिति ॥शतपथ०८।१।१।७-८॥ – अर्थात् यह दक्षिण दिशा ही विश्वकर्मा है । विश्वकर्मा वायु है, (क्योंकि) जो यह बहती है, तो यह सब कार्य करती है । जो उसे दक्षिणा कहा, यह इसलिए कि वह दक्षिण दिशा से अधिक बहती है । मन ही वायु होकर, दक्षिण दिशा में ठहरता है अथवा यज्ञ करने वाला ईंट को दक्षिण में रखता है । उस ईंट रखने वाले का मन वैश्वकर्मण (=सब कार्यों को करने में समर्थ) होता है । यहां मैंने कण्डिका के शब्दशः अर्थ किए है क्योंकि ये विचित्र हैं । मेरे अनुसार इसके अर्थ ये है – १) विश्वकर्मा वह है जो सब कर्म करता है या करने में सक्षम होता है । २) वायु विश्वकर्मा है क्योंकि शरीर में यह प्राणवायु के रूप में शरीर की सब क्रियाओं को करवाती है । बल के रूप में जड़ पदार्थों में भी यह क्रिया उत्पन्न करती है । ३) जो दक्षिण से अधिक वायु चलने की बात है, वह तो भारतवर्ष-विशेष के लिए है । इसलिए त्याज्य प्रतीत होती है । ४) जो मनविषयक कहा गया है, वह बहुत ही रोचक है । अधिकतर मनुष्य दाएं हाथ से दक्ष होते हैं । इस कारण से दक्षिण दिशा का भी यह नाम पड़ा है, और संस्कृत में दाएं हाथ को ‘दक्षिण हस्त’ अथवा केवल ‘दक्षिण’ ही कहा जाता है । याज्ञवल्क्य यहां इसी का संकेत देते हुए कह रहे हैं कि मन की क्रियाएं जैसे शरीर के दक्षिण भाग में अधिक स्थित हैं, दक्षिण भाग को अधिक सक्षम कर रही हैं । आज विज्ञान बताता है कि मस्तिष्क में दाएं अंगों का नियन्त्रण बाएं भाग से होता है और बाएं का दाएं भाग से । इसलिए यहा शरीर के भाग का ही अर्थ लेना चाहिए, मन के भाग का नहीं । है न रोचक अंश ? वस्तुतः, याज्ञवल्क्य ने दक्षिण दिशा को यहां इसलिए जोड़ा है क्योंकि यह मन्त्र में दी गई है । इस व्याख्या से दायां हाथ भी विश्वकर्मा कहलाया और मन दक्षिण-प्रधान होने से वैश्वकर्मण कहलाया ।

इस व्याख्या से भी विश्वकर्मा ऋषि वाले मन्त्र क्रिया-प्रधान ही होने चाहिए, यह स्पष्ट है ।

अन्यत्र भी शतपथ कहता है – वाग्वै विश्वकर्मऽर्षिवाचा हि सर्वं कृतम् ॥शतपथ०८।१।२।९॥ – वाणी ही विश्वकर्मा है क्योंकि ऋषियों की वाणी से सब अच्छे कर्म सिद्ध होते हैं – उनके निर्देशों से शुभकर्मों का ज्ञान होता है । पुनः शतपथ इसको प्रजापति भी बताता है – प्रजापतिर्वै विश्वकर्मा ॥शतपथ०७।४।२।५॥ – अर्थात् प्रजापति ही विश्वकर्मा है । परमात्मा तो ब्रह्माण्ड के सब कार्यों को करने वाला है ही, इसलिए उसके लिए इस उपाधि का प्रयोग करने में कोई संशय है ही नहीं ।

इस प्रकार विश्वकर्मा ऋषि वाले मन्त्र क्रिया-प्रधान, कर्मकाण्ड-विषयक व परमात्मा के कर्मों का निरूपण करने वाले होने चाहिए ।

वेद अपने बारे में अनेक अंशों का प्रकटन स्वयं करते हैं । यह आवश्यक भी है, जिससे कि यदि किसी समय उनका ज्ञान लुप्त हो जाए, तो उसको पुनः ढूढ़ा जा सके, जैसा कि आज हम कर रहे हैं । वेदार्थ के सच्चे अन्वेषक को इन संकेतों को सदा ही सही रूप में समझना चाहिए और वेदार्थ करने में प्रयोग करना चाहिए । 


[1] देखिए लेख ‘वेदों में छन्दों के अर्थ’।