वेदों में दी गई तीन अग्नियां

वेदों के अनेक मन्त्रों में तीन अग्नियों का वर्णन मिलता है । निरुक्त में भी इनका विवरण प्राप्त होता है, जिसके आधार पर स्वामी दयानन्द ने अपने भाष्यों में इनका ग्रहण किया है । कुछ मास पूर्व हमने वेदों में प्राकृतिक देवों (दिव्य शक्तियों) की चर्चा की थी । इन अग्नियों को कभी-कभी ‘तीन देवियों’ के रूप में वर्णित किया गया है । आइए, इनके बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं !

तीन अग्नियां

यजुर्वेद का यह मन्त्र प्रायः सर्वज्ञात है –

यस्माज्जातं न पुरा किं चनैव

         य आबभूव भुवनानि विश्वा ।

प्रजापतिः प्रजया सँरराणस्-

         त्रीणि ज्योतीँषि सचते स षोडशी ॥यजुर्वेदः ३२।५॥

अर्थात् जिस परमेश्वर से पूर्व संसार में कुछ भी नहीं हुआ, जो सारे लोकों में भली प्रकार व्याप्त है, वह सोलह कलाओं वाला प्रजापति, प्रजा के साथ रमण करता हुआ, तीन ज्योतियों से (सब पदार्थों को) संयुक्त करता है । यहां जो तीन ज्योतियां कही गई हैं, उनको स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने भाष्य में इस प्रकार कहा है – विद्युत्सूर्यचन्द्ररूपाणि तेजोमयानि प्रकाशकानि – अर्थात् ये तीन तेजोमय और प्रकाश करने वाली ज्योतियां हैं – विद्युत्, सूर्य व चन्द्र । जबकि यहां महर्षि ने ‘भुवनानि’ से उपर्युक्त ‘विद्युत्, सूर्य व चन्द्र’ अर्थ ग्रहण किया है, तथापि यहां ‘पदार्थों के संयोग’ से एक और अर्थ भी बनता है, जो कि निरुक्तानुसार भी है, जो है – सूर्य, विद्युत् व अग्नि । 

जबकि वेदों में तीन से भिन्न ज्योतियों/अग्नियों की संख्या मिलती है, जैसे कि ४, ५, ७, आदि, तथापि तीन संख्या को बहुत अधिक बार कहा गया है । उन्हें अग्नि, विद्युत् व द्यु मानने में सामवेद का प्रमाण प्रदर्शित करते हैं –

अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निरिन्द्रो ज्योतिर्ज्योतिरिन्द्रः ।

सूर्योज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः ॥सामवेदः १८३१॥

अर्थात् अग्नि ज्योति है और ज्योति ही अग्नि, व इसी प्रकार ज्योति से इन्द्र व सूर्य की एकात्मता है । इस प्रकार ‘ज्योतिः’ पद के अर्थ मन्त्र पूर्णतया स्पष्ट करता है – इस पद से पृथिवीस्थ ऊर्जा अग्नि, आकाशस्थ ऊर्जा विद्युत् व द्युलोकीय ऊर्जावान् सूर्य व उसके जैसे अन्य तारागणों को समझना चाहिए । ऐसे ही वैदिक प्रमाणों से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘त्रीणि ज्योतीँषि’ का पूर्वोक्त तात्पर्य ग्रहण किया था ।

इस विषय में निरुक्त का प्रमाण इस प्रकार है – तिस्र एव देवता इति नैरुक्ताः । अग्निः पृथिवीस्थानो वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्षस्थानः सूर्यो द्युस्थानः । तासां माहाभाग्यादेकैकस्या अपि बहूनि नामधेयानि भवन्ति ॥यास्कीयनिरुक्तम् ७।५॥ – अर्थात् निरुक्तकारों के मत में तीन ही देवता (= देवी) होती हैं – अग्नि जो कि पृथिवीस्थानी है, वायु अथवा इन्द्र = विद्युत् जो कि अन्तरिक्षस्थानी है, और सूर्य जो कि द्युलोक-स्थित है । इन देवताओं के महान् गुण-कर्म होने से एक-एक के अनेक नाम होते हैं । यहां यह तो सर्वविदित ही है कि लोक तीन होते हैं –

  • पृथिवीलोक जिसमें सभी स्वप्रकाशरहित ग्रह व उपग्रह (चन्द्र भी) सम्मिलित हैं ।
  • अन्तरिक्षलोक जो पृथिवीलोक व द्युलोक के मध्य में पाया जाने वाला स्थल है, जो कि कुछ अंश में वायु से आच्छादित है, इसीलिए ‘वायु’ इसका पर्याय भी होता है ।
  • द्युलोक जो कि सूर्य जैसे सभी स्वप्रकाशित तारों और उनके प्रभावक्षेत्र का नाम है ।

यह सम्बन्ध वेदमन्त्रों से भी प्रमाणित है, जिनमें से एक मन्त्र इस प्रकार है – अग्निश्च पृथिवी च सन्नते … वायुश्चान्तरिक्षं च सन्नते … आदित्यश्च द्यौश्च सन्नते … ॥यजुर्वेदः २६।१॥ – अर्थात् अग्नि व पृथिवी परस्पर अनुकूल हैं, वायु और अन्तरिक्ष भी और आदित्य व द्युलोक भी ।[1]

अब जब हम ज्योतियों (electromagnetic radiation) की बात करते हैं, तो वह ऊर्जा का विषय हो जाता है । और ऐसा ग्रहण करने पर, जैसे एकदम से इन पदों की गुत्थी खुल जाती है ! पार्थिव तत्त्वों से अग्नि नामक ऊर्जा उत्पन्न होती है । अंग्रेज़ी में इसे combustion कहा जाएगा, जोकि परमाणुओं व अणुओं के अदल-बदल से ऊर्जा उत्पन्न करता है । यहां परमाणु व अणु पार्थिव तत्त्व हैं । फिर, वायवीय तत्त्वों से विद्युत् ऊर्जा प्राप्त होती है । आधुनिक विज्ञान से हम जानते हैं कि विद्युत् का मुख्य अंश परमाणुओं व अणुओं के छोटे अंश – प्रोटौन, इलैक्ट्रौन, आयन – होते हैं । सो, हमें इन्हें ही वायवीय तत्त्व समझना चाहिए । अन्त में, आदित्य से द्यौ/सौर्य ऊर्जा की उत्पत्ति का कथन है । पुनः, आधुनिक विज्ञान से हमें ज्ञात होता है कि सूर्य आदि तारों पर परमाणुओं के सबसे सूक्ष्म अंश – न्यूक्लियस् – के अंशों के संयोग व विभाग से ऊर्जा उत्पन्न होती है । जबकि ऊर्जा के तीनों स्रोत सृष्टि के सूक्ष्मतम अंश, परमाणु/अणु, से सम्बद्ध हैं, तथापि ऊर्जा की उत्पत्ति का प्रकार तीनों में भिन्न है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि इन तीनों प्रकार से उत्पन्न ऊर्जा में प्रकाश (radiation) व उष्मा की सर्वत्र व्याप्ति है । इस प्रकार ‘तीन ज्योतियों’ द्वारा वेद हमें तीन प्रकार की ऊर्जाओं से अवगत करा रहा है । आधुनिक विज्ञान में पोटैन्शियल (potential) और काइनैटक (kinetic) नाम की ऊर्जाएं भी कही गई हैं, परन्तु वे भी अन्ततः उपर्युक्त तीन प्रकार की ऊर्जाओं से जनित दिखाई जा सकती हैं ।

इस प्रकार, वेद ने मनुष्यों को ऊर्जा के तीन प्रमुख विभागों और उनके स्रोतों से अवगत कराया है, और ये तीनों ही स्रोत सृष्टि के सूक्ष्मतम अंश, परमाणु, से सम्बद्ध होने के कारण सृष्टि के आरम्भ में ही उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिए ही वेदों ने इतनी प्रधानता से इन अंशों का वर्णन किया है !

इन तीन ऊर्जाओं से सम्बद्ध कुछ अन्य रोचक अंश मैं यहां साझा कर रही हूं । इनमें से पहला है तीन देवियों का कथन ।

तीन देवियां

कई वेदमन्त्रों में तीन देवियों का कथन पाया जाता है, यथा –

आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विळा मनुष्वदिह चेतयन्ती ।

तिस्रो देवीर्बर्हिरेदँ स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥ऋग्वेदः १०।११०।८॥

यहां ‘तिस्रः देवीः’ के नाम हैं – भारती, इळा व सरस्वती । यही देवियां अन्य बहुत से मन्त्रों में पाई जाती हैं, जैसे –

तिस्रो देवीर्बर्हिरेदँ सदन्त्विळा सरस्वती भारती । मही गृणाना ॥यजुर्वेदः २७।१९॥

तिस्रो देवीर्हविषा वर्द्धमाना इन्द्रं जुषाणा जनयो न पत्नीः ।

अच्छिन्नं तन्तुं पयसा सरस्वतीळा देवी भारती विश्वतूर्तिः ॥यजुर्वेदः २०।४३॥

दैवा होतार ऊर्ध्वमध्वरं नोऽग्नेर्जिह्वयाभि गृणत गृणाता नः स्विष्टये ।

तिस्रो देवीर्बर्हिरेदँ सदन्तामिळा सरस्वती मही भारती गृणाना ॥अथर्ववेदः ५।२७।९॥

इनमें से पहला मन्त्र निरुक्त में इस प्रकार व्याख्यात है – ऐतु नो यज्ञं भारती क्षिप्रम् । भरत आदित्यस्तस्य भाः । इळा च मनुष्यवदिह चेतयमाना । तिस्रो देव्यो बर्हिरिदं सुखं सरस्वती च सुकर्माण आसीदन्तु ॥निरुक्तम् ८।१३॥ – अर्थात् भारती भरत = आदित्य की भा = प्रकाश होती है । इळा मनुष्य के समान यज्ञ में अग्नि को चिताने वाली, अर्थात् पृथिवीस्थ अग्नि ही है । ‘इळा’ पद निघण्टु १।१ में पृथिवी के नामों में भी पढ़ा गया है । यास्क ने स्पष्टतः तो नहीं कहा है, परन्तु इसी प्रकार सरस्वती से अन्तरिक्षस्थ विद्युत् का ग्रहण है ।[2] ‘सरस्वती’ वाङ् नामों (नि०१।११) और उदक (जल) नामों (नि०१।१२) में पढ़ा गया है । इसीलिए व्याख्यायाकारों ने यहां जलीय विद्युत् का ग्रहण किया है, परन्तु जल का अपर अर्थ अन्तरिक्ष भी होता है, जैसा कि ऊपर दिए पते पर ही नभः, व्योमः, आदि, उदक नामों के अन्तर्गत पढ़े गए हैं । इस प्रकार निरुक्त से इन तीन देवियों से उपर्युक्त तीन ऊर्जाओं के अर्थ ज्ञात होते हैं और मन्त्र में मनुष्यों को उनके प्रयोग द्वारा अपने जीवन को सुखकारी बनाने का निर्देश है ।

शेष तीन मन्त्रों में, यजुर्वेद के मन्त्रों का स्वामी दयानन्द का भाष्य प्राप्त होता है और अथर्ववेद के मन्त्र के लिए प्रो० विश्वनाथ विद्यालंकार का भाष्य स्वीकृत किया गया है ।

यजु:० २७।१९ में स्वामी जी ने देवियों से वाणी = विद्या का ग्रहण किया है, परन्तु यह देखने योग्य है कि मन्त्र का ऋषि ‘अग्नि’ है और उससे पूर्व मन्त्र में ‘दैव्या होतारा’ का प्रकरण है, जो कि पूर्वोक्त ऋक्० १०।११०।७ का भी विषय है और वह निरुक्त के पूर्व अनुच्छेद, ८।१२, में अग्नि व अन्तरिक्षस्थ वायु के रूप में व्याख्यात है । सो, यहां भी ऊर्जारूपी अर्थों के अनुसार भी तीन देवियों के अर्थ अवश्य होंगे, ऐसा मुझे प्रतीत होता है । उपदेश, विद्यादि अर्थों का प्रायः तब ग्रहण किया जाता है, जब ‘गृ निगरणे/शब्दे/विज्ञाने’ धातु के साथ इनका योग हो, जैसे इस मन्त्र में ‘गृणाना’ शब्द । परन्तु केवल यही अर्थ सम्भव है, यह मानना सही नहीं है, अपितु अग्नि के हवि को ‘खा जाना’ (निगरण), शब्द करना (शब्दे) – क्योंकि लपलपाती ज्वालाओं वाली अग्नि में हवि अर्पित की जाती है, व प्रकाश करना (विज्ञाने) अर्थ भी सम्भव हैं, जिससे यहां अग्नि अर्थ ग्रहण करने की सम्भावना बनी रहती है ।

यजुः० २०।४३ में महर्षि ने ‘सरस्वती’ से विद्यायुक्त वाणी, ‘इळा’ से नाड़ी व ‘भारती’ से धारण-पोषण करने वाली शक्ति का ग्रहण किया है । इस मन्त्र का ऋषि ‘आङ्गिरसः’ है, सो ये शरीर-सम्बन्धी अर्थ ही सही प्रतीत होते हैं, अर्थात् तीन देवियों का ऊर्जारूपी अर्थ सम्भवतः यहां उपयुक्त न हो ।

अथर्ववेदः ५।२७।९ में विश्वनाथ जी ने मन्त्र में उपदेश विषय ग्रहण करते हुए, इळा = मानुषी वाक्, सरस्वती = वेदवाक् व भारती = आदित्य की प्रभा (केवल यही निरुक्त के उपर्युक्त उद्धरण के अनुसार) अर्थ लिए हैं । इस मन्त्र की देवता ‘अग्नि’ है । सो, यहां भी पूर्वोक्त तीन अग्नियों के अर्थ हो सकते हैं ।

यज्ञ का प्रभाव तीनों लोकों पर पड़ता है, इसलिए इन तीन देवियों का उल्लेख हम इन यज्ञ-सम्बन्धी मन्त्रों में पाते हैं । अन्य तीन-देवी-परक मन्त्रों में भी इसी प्रकार विवेचन की आवश्यकता है ।

तीन अग्नियों की कुछ विशेषताएं

तीन अग्नियों के विषय से सम्बद्ध हम अब वेद, निरुक्त आदि के कुछ और रोचक अंश देखते हैं, जिनमें इन ऊर्जाओं की कुछ विशेषताएं बताई गई हैं । सबसे पहले महर्षि दयानन्द सरस्वती की एक ऋग्वैदिक मन्त्र व्याख्या देखते हैं, जो कि उनके ऋषित्व की परिचायक है क्योंकि निरुक्त में संक्षेप से दिए उपर्युक्त अर्थ को उन्होंने विस्तार से समझाया है ।[3] मन्त्र सुप्रसिद्ध अस्यवामीय सूक्त का प्रथम मन्त्र है –

अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः ।

तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ॥ऋग्वेदः १।१६४।१॥

महर्षि की व्याख्या का सार इस प्रकार है – प्रथम अग्नि विद्युत् है जो कि (वामस्य) शिल्प के लिए अत्यन्त लाभकारी होने से प्रशंसित, (पलितस्य) अति प्राचीन, (होतुः) अनेक रूपों में सुख प्रदान करने वाली है । इस अग्नि का ‘भ्राता’ है लौकिक अग्नि जो कि (मध्यमः) मध्यम स्थानों, अर्थात् पृथिवी और पृथिवी जैसे अन्य प्रकाशशून्य ग्रह-उपग्रहों पर स्थित है, और (अश्नः) पदार्थों का भक्षण करने वाली, उनको जलाने वाली है । विद्युत् का तीसरा ‘भ्राता’ सूर्य पर स्थित है, (घृतपृष्ठः) जिसकी पीठ पर जल है, (विश्पतिम्) प्रजाओं का पालक है और (सप्तपुत्रम्) सात तत्त्वों से उत्पन्न होने वाला है ।

यहां विद्युत् को अति प्राचीन कहना सर्वथा सही है, क्योंकि वस्तुतः यह ऊर्जा प्रारम्भिक कणों, जिनकों सृष्टिविद्या में ‘वायु’ कहा गया है, में पाई जाती है । इन कणों में आकर्षण व अनाकर्षण उत्पन्न हो जाता है, जिससे बल की उत्पत्ति होती है । इनके विचरण या कम्पन से सबसे पुरातन प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न होती है, जिसे प्रधान रूप से हम तापमान के रूप में जानते हैं । सौर ऊर्जा और भौतिक अग्नि उन कणों या ‘विद्युत्’ के पश्चात् उत्पन्न होती है । सृष्टिविद्या में इन दोनों पश्चाद्वर्ती ऊर्जाओं को ‘अग्नि’ नाम से पुकारा गया है । सो, प्रथम, कणरहित आकाश की उत्पत्ति बताई गई है, जो सब वस्तुओं को फैलने या हिलने का स्थान देता है; दूसरे, प्रारम्भिक परमाणु आदि कण उत्पन्न होते हैं, जो अब हिलने के लिए आकाश में सक्षम हो जाते हैं और जिनकी संज्ञा वायु है; तदनन्तर, कणों के पारस्परिक संयोग-वियोग से उपर्युक्त अन्य अग्नियां उत्पन्न होती हैं । सन्दर्भ के अनुसार, विद्युत् की ऊर्जा को ‘अग्नि’ के अन्तर्गत भी गिना जा सकता है, क्योंकि उसका जन्म कणों पर निर्भर है, जैसा कि कुछ अन्य वेदमन्त्रों में पाया जाता है ।

सूर्य को जो यहां ‘घृतपृष्ठ’ कहा गया है । वह भी बड़ा आश्चर्यजनक विशेषण है, क्योंकि आधुनिक विज्ञान ने पाया है कि सूर्य (और सभी तारों) की ऊपरी सतह जलात्मक (fluid) होती है । इस ‘जल’ को प्लाज़्मा (plasma) कहा जाता है । जैसे उबलता हुआ जल सतह से नीचे जाता है और नीचे का जल गर्म होकर ऊपर आता है, ऐसी ही प्रक्रियाएं आदित्यों में भी हो रही हैं । वेदों में इस विशेषण द्वारा विचित्र रूप से इस जलीय गुण को कहा गया है ! इसी प्रकार का दूसरा विशेषण है ‘सप्तपुत्र’ । सूर्य में हाइड्रोजन (Hydrogen) व हीलियम् (Helium) प्रधान रूप से पाई जाती है । ये ही प्रारम्भिक परमाणु भी हैं । कुछ अन्य परमाणु, जैसे कैल्शियम् (Calcium), लोहा (Iron), आदि भी सूर्य में पाए जाते हैं, परन्तु इन तत्त्वों से सूर्य की उत्पत्ति मानना सही न होगा । इसलिए मन्त्र में कहे गए सात तत्त्व अन्वेषणीय हैं । अवश्य ही इनको जान लेने से विज्ञान में और वृद्धि होगी !

अथर्ववेद में ऊर्जा के रूप में अग्नि का कथन और भी स्पष्ट रूप से किया गया है और वहां पांच प्रकार की अग्नियां गिनाई गई हैं –

रक्षन्तु त्वाग्नयो ये अप्स्वन्ता रक्षतु त्वा मनुष्यायमिन्धते ।

वैश्वानरो रक्षतु जातवेदा दिव्यस्त्वा मा प्र धाग्विद्युता सह ॥अथर्ववेदः ८।१।११॥

यहां अग्नियों के रूप हैं – जलों के अन्दर पाए जाने वाली; जिसे मनुष्य जलाते हैं, वह भौतिक अग्नि; वैश्वानर रूप जाठराग्नि जो सब प्राणियों, व विशेषकर मनुष्यों में पाई जाती है; जातवेदा जो प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में निहित है; विद्युत् के साथ पाई जाने वाली दिव्य सौर्य ऊर्जा । यहां दूसरी भौतिक अग्नि, प्रत्येक पदार्थ में स्थित विद्युताग्नि व सौराग्नि को तो हम पहले ही देख चुके हैं । ‘जलों में अग्नि’ कुछ अस्पष्ट है । क्योंकि विद्युत् को अन्त में इस प्रकार कहा गया है जैसे उसको दूसरी बार कहा जा रहा हो, प्रतीत होता है कि ‘अप्सु अन्तः’ अग्नि विद्युत् ही है और यह सही भी होगा क्योंकि वैदिक प्रयोग में ‘जलों’ से अन्तरिक्ष का भी ग्रहण होता है – अन्तरिक्ष के नामों में ‘आपः’ भी पढ़ा गया है (निघण्टु १।३) । अन्य विचारणीय है वैश्वानर नामक जाठराग्नि । सो, वह भौतिक अग्नि का ही एक रूप है, क्योंकि भौतिक अग्नि सभी रासायनिक क्रियाओं की प्रतिनिधि है । ‘जातवेदा’ नामक अग्नि परमाणुओं से सम्बद्ध अग्नि है । इसलिए यह भी विद्युत् का अन्यतम रूप है । इस प्रकार यहां भी वस्तुतः तीन अग्नियां ही कही गई हैं, परन्तु कुछ अग्नियों के रूपान्तर भी दिए गए हैं ।

निरुक्त में विद्युत्

अब जब विद्युत् का विषय छिड़ ही गया है, तो निरुक्त में उसके बारे में क्या कहा गया है, वह भी देख लेते हैं । जबकि अधोलिखित मन्त्रार्थ पूर्वपक्ष में डाला गया है और यास्क ने, शाकपूणि के मत से सहमत होते हुए, इसका खण्डन किया है, तथापि यह व्याख्या भी महत्त्वपूर्ण है और पूरी तरह गलत नहीं है । यह सब चर्चा ‘द्रविणोदस्’ पद की व्याख्या में आती है ।

वहां, प्रथम द्रविणोदस् को विद्युत् या इन्द्र बताया गया, जिसके बारे में कहा गया – स बलधनयोर्दातृतमः, तस्य च सर्वा बलकृतिः ॥यास्कीयनिरुक्तम् ८।२॥  – अर्थात् विद्युत् अन्य किसी भी वस्तु से अधिक बल और धन प्रदान करने वाली होती है और उसके सारे कर्म बल (force) वाले होते हैं । आधुनिक संसार में, जहां हमने विद्युत् पर बहुत नियन्त्रण प्राप्त कर लिया है, हम यही पाते हैं कि अब जैसे हमारा सम्पूर्ण जीवन ही विद्युत् के आधार पर चलता है ! जीवन के सभी क्षेत्रों में उसका ऐसा बोलबाला है कि विद्युत्-रहित जीवन कल्पना के ही बाहर है । ऊपर हमने देखा था कि सृष्ट्यादि में ही विद्युत् से विभिन्न प्रकार के बल उत्पन्न होते हैं, परन्तु आज भी मशीनों की ऊर्जा, आकाशीय बिजली की ध्वंसक शक्ति, इत्यादि, के रूप में विद्युत् से जनित महान् बल सभी को सरलता से दृष्टिगोचर है ।

इस इन्द्ररूपी विद्युत् के स्वरूप की पुष्टि में यह मन्त्र दिया गया है –

अश्वादियायेति यद्वन्त्योजसो जातमुत मन्य एनम् ।

मन्योरियाय हर्म्येषु तस्थौ यतः प्रजज्ञ इन्द्रो अस्य वेद ॥ऋग्वेदः १०।७३।१०॥

अर्थात् जो कोई कहे कि विद्युत् (अश्वात्) सूर्य से उत्पन्न हुई है, तो मैं उसे (ओजसः) बल (अर्थात् वायु) से उत्पन्न मानता हूँ । (मन्योः इयाय) वह ताड़न अर्थात् संघर्षण से उत्पन्न होती है, और (हर्म्येषु तस्थौ) उष्णतायुक्त सब पदार्थों में स्थित होती है । (यतः प्रजज्ञे इन्द्रः अस्य वेद) जहां-जहां से अथवा जिस-जिस प्रकार से यह उत्पन्न होती है, उसे जानो । आज के विज्ञान के अनुसार भी यह वर्णन सही उतरता है – वायु से विद्युत् की उत्पत्ति तो हमने ऊपर देख ही ली । अन्यत्र भी विद्युत् को बल से उत्पन्न होते पाया जाता है, चाहे वह गिरते हुए जल से हो, या चुम्बक में घूमते हए तार से हो, चाहे वह सौर्य ऊर्जा से प्रताड़ित इलैक्टौन् से हो, या दो पदार्थों की रगड़ से उत्पन्न हो, या किसी भी अन्य प्रकार से हो, उसमें बल का किसी न किसी प्रकार से प्रयोग होगा ही ।

द्रविणोदस् से सम्बद्ध ‘द्राविणोदस्’ से भी उपर्युक्त अर्थ का अन्य विद्वानों द्वारा दिए हुए प्रमाण का उल्लेख करते हुए यास्क कहते हैं – अथाप्यग्निं द्राविणोदसमाह (यतो हि) एषः पुनरेतस्माज्जायते ॥यास्कीयनिरुक्तम् ८।२॥ – अर्थात् भौतिक अग्नि को द्राविणोदस् कहा गया है क्योंकि वह इस द्रविणोदस् (विद्युत्) से उत्पन्न होती है (इसलिए वह द्रविणोदस् की अपत्य होने से ‘द्राविणोदस्’ कहलाई) । यहां ऋग्वेद के एक मन्त्र का प्रमाण दिया गया है – … यो अश्मनोरन्तरमग्निं जजान … ॥ऋग्वेदः २।१२।३॥ – अर्थात् जो (अश्मनोः) धन और ऋण रूपी विद्युत् के दो प्रकार से अग्नि उत्पन्न होती है । पिछले माह हमने देखा था कि भौतिक अग्नि पार्थिव तत्त्वों को जलाने वाली ऊर्जा है जो कि परमाणुओं व अणुओं के अदल-बदल से ऊर्जा उत्पन्न करता है । ये अदल-बदल वास्तव में इलैक्ट्रौन के स्तर पर होती है, जो कि विद्यु्त् का प्रधानतया भाग होता है । इस प्रकार विद्युत् से अग्नि का सम्बन्ध बड़ी सूक्ष्मता से दिया गया है ।

शाकपूणि नामक ऋषि के मत को उत्तरपक्ष में रखते हुए, यास्क ने ‘द्रविणोदस्’ का अर्थ अग्नि है, विद्युत् नहीं, ऐसा कहा है । उन्होंने उपर्युक्त १०।७३।१० मन्त्र में अग्नि को मन्यु = बल = रगड़ से उत्पन्न होने के अर्थ किए हैं, जिसके लिए उन्होंने कुछ और मन्त्रों का प्रमाण भी दिया है जिनसे कि अग्नि के स्वरूप पर और प्रकाश पड़ता है, यथा –

द्र्वन्नः सर्पिरासुतिः प्रत्नो होता वरेण्यः । सहसस्पुत्रो अद्भुतः ॥ऋग्वेदः २।७।६॥

अर्थात् अग्नि का अन्न (द्रु) काष्ठ है और (सर्पिः) घी रस है । वह (प्रत्नः) पुरातन धर्म वाला है (सृष्टि में अणुओं के बनते ही उनका ज्वलन भी प्रारम्भ हो जाता है) । वह (होता) सुख देने हारा है और इसलिए (वरेण्यः) वरणीय है (उसको प्रयोग करना सीखना चाहिए । आधुनिक युग में भी हम अग्नि के प्रयोग से मोटरयान, वायुयान, अन्तरिक्षयान और अन्य बहुत से आविष्कारों में प्रयोग करके सुख पाते हैं) । वह (सहसः पुत्रः) बल का अद्भुत पुत्र है (रगड़ से उत्पन्न होता है) ।

त्वं ह यद्यविष्ठ्य सहसः सूनवाहुतः । ऋतावा यज्ञियो भुवः ॥ऋग्वेदः ८।७५।३॥

हे अग्नि ! तू ही (यविष्ठ्य) पदार्थों को जोड़ने और तोड़ने में सबसे प्रबल है । (सहसः सूनू) घर्षण से उत्पन्न होने वाला, तू यज्ञ में प्रयुक्त होता है । (ऋतावा यज्ञियः भुवः) जल के साथ तू शिल्पयज्ञ को सम्पादित करता है (वाष्प इंजन, आदि के रूप में) । आज हम जानते हैं कि जेम्स वॉट द्वारा आविष्कृत वाष्प इंजन से ही औद्योगिक क्रान्ति का समारम्भ हुआ । इससे मन्त्र में इंगित वाष्प इंजन की महत्ता हम समझ सकते हैं ।

अग्ने वाजस्य गोमत ईशानः सहसो यहो ।

अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः ॥ऋग्वेदः १।७३।४॥

(सहसः यहो अग्ने) रगड़ से उत्पन्न अग्ने ! (गोमतः वाजस्य ईशानः) तू भूमिजन्य सोना-चांदी-लोहा-आदि धन की ईश्वर है, स्वामी है (अर्थात् तेरे उपयोग से ही ये धन हमें उपलब्ध होते हैं) । (जातवेदः ! अस्मे महि श्रवः धेहि) हे सब पदार्थों में स्थित अग्नि ! तू हमें महान धन दे । यहां यह बताया गया है कि भूमि के ऊपर न दिखने वाले, परन्तु अन्दर भी कई ऐसे पदार्थ उपलब्ध हैं जिनका अग्नि द्वारा हम शुद्धिकरण करके, अर्थात् शिल्पविद्या के द्वारा, प्रयोग में ला सकते हैं । किस प्रकार संकेतात्मक रूप में वेद कितनी बड़ी बात कह जाता है, उसका यह एक अन्यतम उदाहरण है !

कर्मकाण्ड व गृहस्थ जीवन में तीन अग्नियां

तीन अग्नियों से कर्मकाण्ड में एक अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है । इस विषय को भी हम यहां देख लेते हैं । वेदों में गृहस्थियों के लिए तीन और अग्नियां बताई गईं हैं । वे इस प्रकार हैं –

यो अतिथिनां स आहवनीयो यो वेश्मनि स गार्हपत्यो यस्मिन् पचन्ति स दक्षिणाग्नि ॥अथर्ववेदः ९।६।३०॥

अर्थात् जो अतिथियों की (के लिए) है, वह आहवनीय अग्नि होती है; जो गृह में (प्रदीप्त) है, वह गार्हपत्य; और जिसमें पकाया जाता है, वह दक्षिणाग्नि कहलाती है ।

‘अतिथि’ से यहां यज्ञदेवताओं का ग्रहण है । इस मन्त्र से प्रेरित, कल्पसूत्रों, ब्राह्मणों, उपनिषदों, आदि, में इन अग्नियों का अधिक विवरण प्राप्त होता है । इन सब सूत्रों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में गृह में तीन अग्नियों का विधान था, जिनमें प्रमुख थी गार्हपत्य । गृहपति से निष्पन्न यह शब्द, गृहस्थ के लिए अनिवार्यता सूचित करता है । विवाह के यज्ञ से इस अग्नि को नव-विवाहितों के नए घर में लाया जाता था, और फिर वहां निरन्तर प्रदीप्त रखा जाता था । गृह के विभिन्न कार्यों के लिए इसी अग्नि से ज्योति लेकर जलाया जाता था । सम्भवतः, यह इसलिए था कि पूर्वकाल में जब दियसलाई नहीं थी, तो आग को अरणियों से उत्पन्न किया जाता था, और यह कार्य श्रमसाध्य व कालसाध्य था; अग्नि को जलाए रखना उन दिनों में अधिक सरल था ! सो, पकाने के कार्य के लिए, गार्हपत्य से लाकर जो अग्नि जलाई जाती थी, उसे दक्षिणाग्नि कहते थे । गृह का पाककार्य तो इसमें होता ही था, परन्तु विशेषकर यज्ञ के स्थालीपाक आदि व ऋत्विजों के लिए भोजन आदि के लिए यह प्रयुक्त होती थी । इस दक्षिणा = दान के कारण उसका यह नाम है । गार्हपत्य से ही, अग्निहोत्र के लिए अग्नि लाई जाती थी, जिस यज्ञाग्नि को आहवनीय कहा जाता था । यज्ञ में प्राकृतिक देवों का आह्वाहन किया जाता है, इसलिए उसका यह नाम है ।

प्रश्नोपनिषद् में प्राणों को समझाने के लिए इन अग्नियों की उपमा दी गई है –

प्राणाग्नय एवैतस्मिन् पुरे जाग्रति । गार्हपत्यो ह वा एषोऽपानो व्यानोऽन्वाहार्यपचनो

यद्गार्हपत्यात् प्रणीयते प्रणयनादाहवनीयः प्राणः ॥प्रश्नोपनिषत् ४।३॥

अर्थात् प्राण-अग्नियां ही इस शरीररूपी नगर में (सर्वदा) जागती रहती हैं । यह अपान गार्हपत्य है (जो वायु के अन्दर खींचे जाने से मुख्य जीवनदायक प्राण है – जो वह रुक जाए, तो शरीर मृत हो जाए; इसलिए उसका निरन्तर चलना आवश्यक है, जिस प्रकार गार्हपत्याग्नि गृह में निरन्तर जलती है) । व्यान अन्वाहार्यपचन अग्नि है जो कि गार्हपत्य अग्नि से लाई जाती है (अन्वाहार्यपचन दक्षिणाग्नि का पर्याय है । शब्द का अर्थ है – जो पाक क्रिया के लिए, गार्हपत्याग्नि के जलते रहते, उससे लाई जाए । इस पद से अग्नि का कर्म पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है । व्यान, शरीर में जहां-जहां ऊर्जा की आवश्यकता होती है, वहां उपस्थित होकर उसे प्राप्त कराता है, जिस प्रकार अन्वाहार्यपचन अग्नि को आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाया जाता है) । इस प्रणयन = लाए जाने के कारण आहवनीय अग्नि रूप प्राण है (फेफड़े में ली गई अपान वायु से आवश्यक तत्त्व, औक्सीजन, को निकालकर, व अनावश्यक तत्त्व, कार्बन डाइऔक्साइड, को उसमें फेंककर, प्राणवायु उत्पन्न होती है । जो अपान न हो, तो प्राण हो ही नहीं सकता । इस प्रकार प्राण भी ‘गार्हपत्य’ अपान से ही निकलता है, जिस कारण से उसे प्राण कहा जाता है) । इस प्रकार, बड़ी सुन्दरता से प्रश्नोपनिषद् प्राणवायुओं को समझाता है ।

शतपथ ब्राह्मण का एक प्रकरण इन दोनों धारणाओं को जोड़ता है, और उसके अन्य तथ्य भी रोचक हैं, इसलिए मैं पूरा प्रकरण दे रही हूं –

प्रजापतिर्वा इदमग्र आसीत् । एक एव सोऽकामयत स्यां प्रजायेयेति । सोऽश्राम्यत् । स तपोऽतप्यत । तस्मात्छ्रान्तात् तेपानात् त्रयो लोका असृज्यन्त पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौः ॥१॥

स इमांस्त्रींलोकानभितताप । तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रीणि ज्योतीँष्यजायन्ताग्निर्योऽयं पवते सूर्यः ॥२॥

स इमानि त्रीणि ज्योतीँष्यभितताप । तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्ताग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः ॥३॥

स इमांस्त्रीन् वेदानभितताप । तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायन्त भूरित्यृग्वेदाद्भुव इति यजुर्वेदात् स्वरिति सामवेदात् । तदृग्वेदेनैव होत्रमकुर्वत यजुर्वेदेनाध्वर्यवँ सामवेदेनोद्गीथं यदेव त्रय्यै विद्यायै शुक्रं तेन ब्रह्मत्वमथोच्चक्राम ॥४॥

ते देवाः प्रजापतिमब्रुवन् यदि न ऋक्तो वा यजुष्टो वा सामतो वा ह्वलेत् केनैनं भिषज्येमेति ॥५॥

स होवाच यदृक्तो भूरिति चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वा गार्हपत्ये जुहवथ । यदि यजुष्टो भुव इति चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वाग्नीध्रीये जुहवथान्वाहार्यपचने वा हविर्यज्ञे । यदि सामतः स्वरिति चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वाहवनीये जुहवथ । यद्यु अविज्ञातमसत् सर्वाण्यनुद्रुत्यावहनीये जुहवथ । तदृग्वेदेनैवर्ग्वेदं भिषज्यति यजुर्वेदेन यजुर्वेदं सामवेदेन सामवेदं । स यथा पर्वणा पर्व सन्दध्यादेवँ हैव स सन्दधाति । य एताभिर्भिषज्यत्यथ यो हातोऽन्येन भिषज्यति यथा शीर्णेन शीर्णं सन्धित्सेद्यथा वा शीर्णे गरमभिनिदध्यादेवं तत् । तस्मादेवंविदमेव ब्रह्माणं कुर्वीत नानेवंविदम् ॥६॥

तदाहुः । यदृचा होत्रं क्रियते यजुषाध्वर्यवं साम्नोद्गीथोऽथ केन ब्रह्मत्वमित्यनया त्रय्या विद्ययेति ह ब्रूयात् ॥शतपथब्राह्मणम् ११।५।८।७॥

अर्थात् – निश्चय से (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व) केवल प्रजापति ही था । उस अकेले ने कामना की कि मैं प्रजा वाला हो जाऊं । (इसके लिए) उसने श्रम व तप किया । उस श्रम व तप से तीन लोक सृजित हुए – पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यौ ॥१॥

उस (प्रजापति) ने तीन लोकों को तपाया । उन तीनों के तपने से तीन ज्योतियां उत्पन्न हुईं – अग्नि, यह जो बहता है (अर्थात् वायु, जिससे विद्युत् उपलक्षित है) और सूर्य ॥२॥ (यहां हम स्पष्टरूप से ज्योतियों का अर्थ और उनके लोकों का ग्रहण पाते हैं ।)

उसने इन तीन ज्योतियों को तपाया । उन तीनों के तपने से तीन वेद उत्पन्न हुए – अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद ॥३॥

उसने इन तीन वेदों को तपाया । उन तीनों के तपने से तीन शुक्र उत्पन्न हुए (जिनसे संक्षेप में तीन वेदों का ग्रहण हो) – ऋग्वेद से भूः, यजुर्वेद से भुवः और सामवेद से स्वः । ऋग्वेद से ही होत्र बनाया, यजुर्वेद से अध्वर्यव व सामवेद से उद्गीथ । त्रयी विद्या में जो शुक्र था, उससे ब्रह्मत्व बनाया (यज्ञ के तीन ऋत्विज् – होता, अध्वर्यु व उद्गाता को बनाया, व तीनों वेदों को जानने वाले यज्ञ के ब्रह्मा को बनाया) ॥४॥

उन देवों (ऋत्विजों) ने प्रजापति से कहा, “यदि हमारा यज्ञ ऋक् या यजुष् या साम से न हिले (हमारे वैदिक मन्त्रों के प्रयोग में कुछ कमी रह जाए), तो किससे उसका उपचार करें (कैसे उस दोष की भरपाई करें) ॥५॥

वह (प्रजापति) बोला – यदि ऋक् में कमी हो, तो चार चम्मच घी से, ‘भूः’ कहते हुए, गार्हपत्य (अग्नि) में होमो । यदि यजुष् में कमी हो, तो चार चम्मच घी से, ‘भुवः’ कहते हुए, आग्नीध्रीय में होमो, या हविर्यज्ञ करते हुए (हवि भी डालते हुए), अन्वाहार्यपचन (अग्नि) में होमो (ये दोनों नाम दक्षिणाग्नि के पर्याय माने जाते हैं, परन्तु यहां स्पष्ट हो रहा है कि, वास्तव में, आग्नीध्रीय व अन्वाहार्यपचन अग्नियों में भी कुछ भेद था । अन्वाहार्यपचन को हविर्यज्ञ भी कहा गया है क्योंकि, उसपर भोजन पका लेने के बाद, उसमें घृत अथवा मिष्ठान्न की आहुति दी जाती थी) । यदि साम में कमी हो, तो चार चम्मच घी से, ‘स्वः’ कहते हुए, आहवनीय में होमो । यदि यह ज्ञात न हो कि किस वेद के प्रयोग में कमी हुई, तो सब (व्याहृतियों) को शीघ्रता से बोलकर आहवनीय में होम करो । इस प्रकार ऋग्वेद से ऋग्वेद का, यजुर्वेद से यजुर्वेद का व सामवेद से सामवेद का उपचार होता है । जैसे जोड़ पर जोड़ (उसी पदार्थ का दूसरा अंश) रखकर, (कटे को) जोड़ा जाता है, वैसे ही उन्हीं (वेदों) से (उनके टूटे भागों) को जोड़ देता है । जो किसी अन्य से जोड़े, तो वह जैसे टूटे से जोड़ा जाए, या विष से जोड़ा जाए, ऐसा हो जाएगा (अर्थात् विनाश हो जाएगा) । इसलिए ऐसे (ऋत्विज्) को (यज्ञ का) ब्रह्मा बनाना चाहिए, जो यह जानता है, दूसरे को नहीं ॥६॥         

सो कहते हैं कि ऋग्वेद से होत्र किया जाता है, यजुष् से अध्वर्यव, साम से उद्गीथ । (यदि कोई पूछे –) तो ब्रह्मत्वं किससे हो? तो उत्तर दो कि इन तीनों विद्याओं से (अर्थात् जो इन तीनों वेदों को जाने, वह यज्ञ का ब्रह्मा कहाए) ।

इस प्रकार शतपथ ब्राह्मण का यह प्रकरण तीन लोकों को तीन ज्योतियों, वेदों, व्याहृतियों व गृह की तीन भौतिक अग्नियों से जोड़ता है । इस सम्बन्ध को और अधिक समझने की आवश्यकता है ।

वैदिक जीवन में अग्नि की बहुत महत्ता थी । आज अग्नि को एक महान प्रारम्भिक आविष्कार माना जाता है । वेदों में अग्नि की इस महत्ता का दर्शन ही पदे-पदे दृष्टिगोचर होता है । सुव्यवस्था के लिए, गृह की अग्नियों के भी तीन प्रकार निर्धारित किए गए थे । परन्तु भौतिक अग्नि ही नहीं, विद्युत् व सौर ऊर्जा की महानता का भी वेदों ने प्रस्थापन किया, जिससे मनुष्य इनका अपने कार्यों में उपयोग करके लाभ उठाएं । इस प्रकार, पुनः हम वेदों की महानता व वैज्ञानिकता का दिग्दर्शन पाते हैं ।

वेदों में मनुष्य के उपकार के लिए कितना ज्ञान भरा हुआ है, इसकी परिकल्पना करना भी असम्भव हो जाता है – जहां भी हम देखते हैं , कुछ-न-कुछ हमारे लाभ का प्राप्त हो जाता है ! यास्क ने निरुक्त में कुछ अंशों का खुलासा किया है । महर्षि दयानन्द ने तो अनेक मन्त्रों की वैज्ञानिक व्याख्या की है । खेद है कि आज भी इन विषय के ज्ञाता वेदज्ञ बहुत कम हैं… जहां कुछ प्रयत्न चल भी रहे हैं, वे बहुत अंश में त्रुटिपूर्ण हैं । मुझे आशा है कि उपर्युक्त प्रकार से मन्त्रों की व्याख्याओं पर अधिक ध्यान दिया जाएगा और वैज्ञानिक-जन इस निहित विज्ञान को अन्वेषण द्वारा आगे बढ़ाएंगे ।


[1] इस मन्त्र के चौथे भाग में जल और वरुण (= जलीय अवयवों वाले) इसी प्रकार दिए गए हैं । मन्त्र में वसने वाले लोकों का सन्दर्भ है जिनका जल एक महत्त्वपूर्ण अंश है । हमारी चर्चा में वह सन्दर्भ नहीं है, इसलिए मैंने उनका यहां ग्रहण नहीं किया गया है ।

[2] देखें चन्द्रमणि विद्यालंकार पालीरत्न का निरुक्त भाष्य ‘वेदार्थ-दीपक निरुक्तभाष्य उत्तरार्ध’, पृ०५४६, अथवा स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक विद्यामार्तण्ड जी का प्रकृत् मन्त्र भाष्य ।

[3] यास्कीय निरुक्त ४।२६ में दी इस मन्त्र की व्याख्या को भी अवश्य देख लें ।