योगदर्शन की सिद्धियों का वैदिक प्रमाण

बहुत वर्ष पहले मैंने योगसिद्धियों की सत्यता पर अपने विचार प्रस्तुत किए थे । पतञ्जलि मुनि द्वारा निर्दिष्ट सिद्धियों के प्रमाण मैं वेदों में ढूढ़ती रहती हूं । ऋषि दयानन्द द्वारा की गई एक मन्त्र-व्याख्या में मुझे एक चमत्कारी सिद्धि का प्रमाण मिला । उसी को इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं ।

वैसे तो योगदर्शन के सभी अध्यायों में साधना के फल निर्दिष्ट हैं, तथापि विभूतिपाद नामक तीसरे अध्याय में जो सिद्धियां दी गईं हैं वे विशेष रूप से चमत्कारी लगती हैं । नगरों में कोई इतने महान् योगी तो आजकल मिलते नहीं जिनमें ये सिद्धियों प्रत्यक्ष हो जाएं, इसलिए हमें अन्यत्र प्रमाण खोजने पड़ते हैं । वेद तो अन्तिम प्रमाण हैं ही, सो जो उन्होंने कह दिया, उसे सत्य मानना ही पड़ेगा । इस विषय में देखिए यह मन्त्र –

अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्द्धञ्छतं ते प्राणाः सहस्रं व्यानाः ।

त्वँसाहस्रस्य राय ईशिषे तस्मै ते विधेम वाजाय स्वाहा ॥यजुर्वेदः १७।७१॥

ऋषिः – कुत्सः, देवता – अग्निः

इसपर महर्षि का भाष्य इस प्रकार है –

विषयः – योगी के कर्मों का फल

पदार्थः – हे (सहस्राक्ष) सहस्रों व्यवहारों में आंखों के विशेष ज्ञान वाले (सहस्रों प्राणियों के आंख के ज्ञान को जानने वाले), (शतमूर्द्धन्) सैंकड़ों (प्राणियों में) मस्तक वाले (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान् योगिराज ! जिस (ते) आप के (शतम्) सैंकड़ों (प्राणाः) जीवन के साधन, (सहस्रम्) असंख्य (व्यानाः) चेष्टा की निमित्त सारे शरीर में स्थित वायुएं, जो (त्वम्) आप (साहस्रस्य) सहस्रों जीव और पदार्थों का आधार जो जगत्, उस के (रायः) धन के (ईशिषे) स्वामी हैं, (तस्मै) उस (वाजाय) विशेष ज्ञान वाले (ते) आप के लिए हम लोग (स्वाहा) सत्यवाणी से (विधेम) सत्कारपूर्वक व्यवहार करें ।

भावार्थः – जो योगी तप आदि योग के साधनों से योग  के बल को प्राप्त होकर, अनेक प्राणियों के शरीरों में प्रवेश करके, अनेक शिर, नेत्र, आदि अंग से देखने आदि कार्यों को कर सकता है, अनेक पदार्थों व धनों का स्वामी भी हो सकता है, उस का हम लोगों को अवश्य सेवन (सेवा व सत्संग) करना चाहिए ।

विवेचनम् –

अब हम प्रत्येक सिद्धि को योगदर्शन के परिपेक्ष में देखते हैं –

  • सहस्राक्ष के, उपर्युक्त व्याख्या से, दो अर्थ बनते हैं – जिसकी चक्षुरिन्द्रिय दिव्य होकर एक से अधिक के समान कार्य करे, या फिर, जो अन्य प्राणियों के चक्षु से भी देख सके । दूसरा अर्थ सभी निर्दिष्ट सिद्धियों में एक समान है, इसलिए हम इसका पुनः पुनः निर्देश नहीं करेंगे, अपितु अन्त में उसकी चर्चा ‘परशरीरप्रवेश’ के अन्तर्गत करेंगे । यहां चक्षु को सभी इन्द्रियों का उपलक्षण मानना चाहिए । इन्द्रियों के शक्तिवर्धन (और अन्य निर्दिष्ट सिद्धियों) पर योगदर्शन में अनेक सूत्र हैं । उनमें से मुख्य मैं नीचे दे रही हूं –

श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद्दिव्यं श्रोत्रम् ॥योगदर्शनम् ३।४१॥

अर्थात् श्रोत्र व आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से दिव्य श्रोत्र उत्पन्न हो जाता है । यहां पुनः श्रोत्र से सभी इन्द्रियों का अपने-अपने विषय के साथ ग्रहण कर लेना चाहिए । विषय से सम्बन्ध जान लेने से, योगी इन्द्रिय, मन व बुद्धि की शक्ति बढ़ाकर, साधारण से अधिक ग्रहण करने लगता है । इसी सिद्धि को वेद ने भी कहा ।

  • शतमूर्धा – जिसकी बुद्धि जैसे असंख्य बुद्धियों जैसी हो । इस विषय में योगदर्शन कहता है –

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥योगदर्शनम् १।४८॥

अर्थात् निर्विचार समाधि में महारथ पा लेने पर आत्मा का ज्ञान सत्य से भर जाता है – ब्रह्माण्ड के विभिन्न तथ्यों को जान लेता है । यह बात आगे ३।४९ सूत्र में भी हम देखेंगे ।

  • शतप्राणाः, सहस्रव्यानाः – जिसका शरीर इतना बलशाली हो जाए कि लगे उसको मारना क्या, चोट पहुंचाना भी असम्भव हो, जैसे कि उसके सैंकड़ों प्राण हों और सैंकड़ों व्यान ! इसे योगदर्शन कायसम्पत् के रूप में वर्णित करता है –

रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसम्पत् ॥ ॥योगदर्शनम् ३।४६॥

अर्थात् योगी की काया रूपवान्, कान्तियुक्त, बलवान् और वज्र जैसी दृढ़ हो जाती है । यह सिद्धि भूतजय कहाती है जिसमें योगी प्रकृति को वश में कर लेता है – स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयामाद्भूतजयः ॥योगदर्शनम् ३।४४॥, जिसके विषय में और विवरण है – ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत् तद्धर्मानभिघातश्च ॥योगदर्शनम् ३।४४॥ – अर्थात् भूतजय से अणिमा आदि सिद्धियों का प्रादुर्भाव होता है, कायसम्पत् प्राप्त होती है और पंचभूतों के धर्म योगी को रोकने में असमर्थ हो जाते हैं । सो, योगी को चोट-फैंट लगना बन्द हो जाती है और वह बिना रोक-टोक के, स्वछन्द रूप से विचरता है । यही तथ्य वेद भी कह रहा है ।

  • साहस्रस्य रायः ईशः –  संसार के पदार्थों का ईश्वर, अर्थात् उनका स्वामी अथवा उनको वश में करने वाला । समाधि में निष्णात होने से पूर्व भी योगी को एक सिद्धि प्राप्त होती है –

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥योगदर्शनम् २।३७॥

अर्थात् शारीरिक, वाचिक व मानसिक रूप से चोरी का त्याग, या अस्तेय, में भली प्रकार प्रतिष्ठित हो जाने पर, सब प्रकार के रत्न/धन योगी के समीप आ जाते हैं, उसे प्राप्त हो जाते हैं । हमें प्रायः लगता है कि अस्तेय सरल व्रत है, क्योंकि साधारणतया हममें परपदार्थ की चोरी करने के संस्कार नहीं होते । परन्तु किसी भी प्रकार की ईर्ष्या, कोई भी ऐसी भावना कि यह वस्तु दूसरे के पास कैसे है, मुझे क्यों न मिली, सभी ऐसी भावनाओं से पूर्णतया निवृत्त होना नितान्त कठिन है । सो, यह हुई पहले अर्थ में सिद्धि ।

परिपक्व योगी तो सांसारिक पदार्थों को और भी वश में कर लेता है । उसे धन का कोई मोह नहीं होता; सो, धन इकट्ठा करने में उसकी कोई रुचि नहीं होती, परन्तु भूतों को अपने नियन्त्रण में करना उसका जीवन निष्कण्टक बना देता है । जबकि भूतजय की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं, तथापि यह पद इससे भी बड़ी एक सिद्धि को कह रहा है –

सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च ॥योगदर्शनम् ३।४९॥

अर्थात् जो सर्वदा बुद्धि और आत्मा की पृथक्ता को देखता है, वह सब उत्पन्न पदार्थों का अधिष्ठाता बन जाता है और ब्रह्माण्ड के सत्यों का ज्ञाता बन जाता है । अधिष्ठाता होना अर्थात् पदार्थों पर शासन करना, उन्हें अपने अनुसार चलाना । सो, यह द्वितीय अर्थ में योगसिद्धि है ।

सूत्र का ‘सर्वज्ञातृत्व’ शतमूर्धा का भी बोधक है, जैसा ऊपर कहा गया था ।

  • वाजी – अति विशेष ज्ञान वाला । ऊपर हम बहुत प्रकार के ज्ञान की बात कर ही चुके हैं; अब बात उठती है आत्मा के अपने ज्ञान की – जो बुद्धि से परे हो, स्वयं आत्मा को होता हो । सो, योगदर्शन कहता है –

ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते ॥योगदर्शनम् ३।३६॥

अर्थात् पुरुष (स्वात्मा) को देख लेने पर, प्रातिभ सुनना, छूना, देखना, चखना व सूंघना उत्पन्न हो जाता है । यहां ‘प्रातिभ’ का अर्थ है – आत्मा की अपनी शक्ति से उत्पन्न ज्ञान । सो, यह श्रवण आदि आत्मा द्वारा सीधे होने लगता है, जिससे की इन्द्रियों की सीमाओं के बाहर भी योगी संसार का अनुभव करने लगता है । वस्तुतः, आत्मा के सामर्थ्य शरीर से अधिक होते हैं, शरीर उसको बाधित ही करता है, उसकी शक्तियों को बढ़ाता नहीं है । देखिए, केचुएं में भी वैसी ही आत्मा होती है, जैसी आपकी है, परन्तु वह देख नहीं सकता, सुन नहीं सकता । उसके शरीर में ऐसे अवयव नहीं हैं जो उसकी आत्मा की शक्ति को क्रियान्वित कर सकें । इसलिए ‘प्रातिभ’ ज्ञान अनोखा होता है !

  • परशरीरप्रवेशः – अब हम सबसे चमत्कारिक और असम्भव लगने वाली सिद्धि पर आते हैं – दूसरे प्राणियों के शरीर में प्रवेश करना, जिससे कि योगी दूसरे के शरीर व मन की गतिविधियों को जान लेता है ।

प्रथम तो योगी दूसरे के ज्ञान पर, उसकी बुद्धि पर, ध्यान केन्द्रित करके, उसकी बुद्धि में उठने वाले विचारों को जान लेता है –

प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् ॥योगदर्शनम् ३।१९॥

विवेकख्याति होने पर यह सिद्धि और प्रखर हो जाती है –

बन्धकारणशैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः ॥योगदर्शनम् ३।३८॥

शरीर से पृथक् आत्मा का ज्ञान हो जाने पर, आत्मा का शरीर से बन्धन का कारण शिथिल पड़ जाता है, और योगी को सूक्ष्म शरीर के एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रचार का ज्ञान हो जाने से, वह अपने चित्त (अर्थात् सूक्ष्म शरीर) को दूसरे प्राणी के शरीर में डाल सकता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि वह दूसरे के शरीर से कर्म करवाने लगता है – वह केवल उसमें प्रवेश कर दूसरे के अनुभवों, कर्मों व विचारों का साक्षी बन जाता है ।

पतञ्जलि मुनि निर्दिष्ट यह चमत्कारिक सिद्धि वेदों के द्वारा प्रमाणित हो गई !

वेदों में योगजनित सिद्धियों के वर्णन को पाकर, और उनका योगदर्शनोक्त सिद्धियों से मिलाप करके, यह आश्वासन मिलता है कि पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट अन्य असम्भव प्रतीत होने वाली सिद्धियां भी अवश्य सही होंगी । ऋषि दयानन्द की सूक्ष्म दृष्टि से हमें यह अमूल्य आश्वासन प्राप्त हुआ है !